शनिवार, 5 अप्रैल 2014

विधर्मी , विदेशी और विदेशी मानसिकता वाली सरकार को निकाल फेंकने की कसम खाएं और स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ भारत , भारतीय और भारतीयता के कट्टर समर्थक नमो की सरकार बनायें

विधर्मी , विदेशी और विदेशी मानसिकता वाली सरकार को निकाल फेंकने की कसम खाएं और स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ भारत , भारतीय और भारतीयता के कट्टर समर्थक नमो की सरकार बनायें 

इसमें कतई अत्तिश्योक्त्ति नहीं कि भारतवर्ष  के १९९८ में किये गए परमाणु विस्फोट से दुनिया की शक्तिशाली ताकते हिल गई थी , और उन्होंने दुनिया के अपने भावी कार्यक्रम अर्थात गेम प्लान में भारतवर्ष को और सत्ता की बागडोर संभाले भारतीय जनता पार्टी को केंद्रविंदु में रखकर अर्थात रडार पर लेकर रणनीति बनाई .  उन्हें इस रणनीति को बनाने की पुरजोर आवश्यकता इसलिए भी बनी की पश्चिमी देशो के प्रत्तिवंध अर्थात विविध  सेंक्शनस लगाने के बाद भी भारतवर्ष की विकास दर अक्षुण्ण बनी रही और भारतीय अर्थवयवस्था और भी मजबूत होकर निकली. भारतवर्ष के दुनिया में इतना मजबूत बनने से तो तथाकथित अंतर्राष्ट्रीय ताकतों को भविष्य की चिंता सताने लग गई और भारत के विषय में बहुत ही गंभीर चिंतन होने लगा. तत्पश्चात भारतीय जनता पार्टी को हाशिए पर रखने के लिए इन सभी शक्तियों ने मिलकर भारतवर्ष में एक विशेष देश परस्त नौकरशाह, पत्रकार, व्यापारी और राजनेताओं का गैंग तैयार किया. और सुनिश्चित किया की देश का भविष्य कुछ एक दशक तो इनके ही हाथ में रहे. और फिर छोटी - मोटी राजनीति को छोड़ कर भारतवर्ष  की हर दिशा और दशा में हस्तक्षेप होने लगा. आखिर क्या कारण है कि छद्म स्वतंत्र भारतवर्ष  की क्रूरतम सरकार को धुरविरोधी राजनितिक दल हर समय बचाने के लिए खड़े ही रहते है. गत्त दस वर्षों के खान्ग्रेस की शासन काल को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह केन्द्रीय खांग्रेसी सरकार अर्थात यह कांग्रेस की सरकार न हुई यह तो साक्षात् ब्रह्मा की ही सरकार हो गई . किसी बड़े राज्य में विपक्षी जीते या केबिनेट के आधा दर्जन मंत्री जेल में हो, छद्म स्वाधीन भारतवर्ष के राजवंश के दामाद पर भ्रष्टाचार के आरोप हो या फिर पोपट, निर्लज्ज ,मूक और अक्षम प्रधानमंत्री मंदमोहन का जीवन्त लोकतंत्र में बार - बार प्रधानमंत्री बनना हो. यह सब भारतवर्ष में बड़े ही मजे से हो रहा है. जहाँ तो सरकार चलाना काँटों का ताज माना जाता था वहाँ इस रोमकन्या सोनिया संचालित खांग्रेसी सरकार तो बड़े ही आराम से चल ही नहीं दौड रही है , मानो थाली में परोसी भोजन को आराम से कोई खा रहा हो , दूसरी ओर यह विपक्ष के ५०-५० साल के राजनैतिक अनुभव वाले बुजुर्ग दर - बदर की ठोकरे खा रहे और चवन्नी छाप लोग देश के सर्वशक्तिमान बन देश की बागडोर संभाले बैठे है. क्यूँ मित्रो ! आपको नहीं लगता कि कुछ तो दाल में काला है ? अगर है तो इस विधर्मी , विदेशी और विदेशी मानसिकता वाली सरकार को निकाल फेंकने की कसम खाएं और स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ भारत , भारतीय और भारतीयता के कट्टर समर्थक नमो की सरकार बनाने में सहभागी बन राष्ट्रभक्तों की श्रेणी में अपना नाम दर्ज कराएं !



मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

बहुसंख्यक समाज का यह परम धरम , परम कर्तव्य व परम अधिकार है कि वे विधर्मी , विदेशी व छद्म धर्मनिरपेक्षशक्तियों को कैसे सबक सिखलाती हैं और किस प्रकार अपनी स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ नमो के करकमलों को संरक्षित , सुरक्षित , प्रवृद्ध व मजबूत करते हैं ???? -अशोक "प्रवृद्ध"

 बहुसंख्यक समाज का यह परम धरम , परम कर्तव्य  व परम अधिकार है कि वे विधर्मी , विदेशी व छद्म धर्मनिरपेक्षशक्तियों को कैसे सबक सिखलाती हैं और किस प्रकार अपनी स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ नमो
 के करकमलों को संरक्षित , सुरक्षित , प्रवृद्ध व  मजबूत करते हैं ????
अशोक "प्रवृद्ध"
झारखण्ड के गुमला में नमो , अर्जुन मुंडा ,रघुबर दास और
 लोहरदगा क्षेत्र के भाजपा प्रत्याशी सुदर्शन भगत 

बहुसंख्यक समाज का यह परम धरम , परम कर्तव्य  व परम अधिकार है कि वे विधर्मी , विदेशी व छद्म धर्मनिरपेक्षशक्तियों को कैसे सबक 
सिखलाती हैं और किस प्रकार अपनी स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ नमो

 के करकमलों को संरक्षित , सुरक्षित , प्रवृद्ध व  मजबूत करते हैं ????
अशोक "प्रवृद्ध"


गौरवमयी भारतवर्ष के प्रशंसकों , समर्थकों अर्थात आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू स्वाभिमान से जुड़े लोगो , संगठनों को यह समझना ही होगा कि जब तक सत्ता के शीर्ष शिखर पर बैठ कर परिवर्तन नहीं किया जायेगा तब तक सनातनी सांस्कृतिक - सामाजिक पुनराभ्युदय ( क्रांति ) कदापि संभव नहीं क्योंकि टहनियों और डालियों  पर बैठ कर उन पर पानी डाल कर वृक्ष को मजबूत कतई  नहीं किया जा सकता. इस देश में छद्म धर्मनिरपेक्षता अर्थात सेकुलर का ढोंग छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में करीब छः दशकों  के षड्यंत्र का नतीजा है जिसको वर्तमान भारतवर्ष का बहुसंख्यक अर्थात आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिन्दू समाज भुगत रहा है .

वर्तमान में इससे बचने का , इस समस्या के समाधान का सुगम व सरल उपाय भारतवर्ष के बहुसंख्यक हिन्दू समाज के समक्ष नमो अर्थात नरेंद्र मोदी के रूप में दैविक कृपा से आ उपस्थित खडा हुआ है , लेकिन विधर्मी , विदेशियों , विदेशी मानसिकता के लोगों की पार्टी खान्ग्रेस व उसके छद्म धर्मनिरपेक्ष सहयोगी भोली - भाली बहुसंख्यक जनता को बरगलाने के लिए , उनको ठगने के लिए साम , दाम , दंड , भेद सभी नीति , सभी उपाय करने में लगे हैं . अब बहुसंख्यक समाज का यह परम धरम , परम कर्तव्य  व परम अधिकार है कि वे विधर्मी , विदेशी व छद्म धर्मनिरपेक्षशक्तियों को कैसे सबक सिखलाती हैं और किस प्रकार अपनी स्वदेशी सरकार संस्थापनार्थ नमो के करकमलों को संरक्षित , सुरक्षित , प्रवृद्ध व मजबूत करते हैं ????????????????

वन्दे भारतमात्तरम !!

सोमवार, 31 मार्च 2014

शेर पलायन नहीं करते , पलायन तो कुत्ते करते हैं , और वर्तमान में पलायन करते पिल्लों की दिशा बतला रही है कि पलायन करने वाले संयुक्त प्रगत्तिशील गठबंधन से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तरफ लुढ़क रहे हैं l

शेर पलायन नहीं करते , पलायन तो कुत्ते करते हैं , और वर्तमान में पलायन करते पिल्लों की दिशा बतला रही है कि पलायन करने वाले संयुक्त प्रगत्तिशील गठबंधन से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तरफ लुढ़क रहे हैं l 

 राष्ट्र के लोकतांत्रिक वरीयताक्रम में अभी भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नमो नरेंद्र भाई मोदी सर्वोच्च पर अर्थात सबसे ऊपर हैं L उनसे जनअपेक्षायें भी सर्वाधिक हैं l रोमकन्या पुत्र आऊल उर्फ राहुल बनाम नमो उर्फ नरेंद्र मोदी में नमो बेहतर विकल्प हैं l संकल्प से तो क्रांतियाँ होती हैं लोकतंत्र में तो बेहतर विकल्प ही देखना उत्तम होता है  l इसीलिए भारतीय जनता की निगाहें छद्म स्वाधीन भारतवर्ष में पहली बार चुनाव से पूर्व ही नमो में प्रधानमंत्री के लिए बेहतर विकल्प महसूस कर उनके पीछे गोलबंद हो रही है l ऐसा भारतवर्ष की लोकतान्त्रिक इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ कि किसी एक व्यक्ति के पीछे चुनाव के पूर्व ही प्रधानमंत्री पद हेतु ऐसी लहर भारतवर्ष में उठती दिखाई दी हो l यह सर्वविदित तथ्य है कि शेर पलायन नहीं करते , पलायन तो कुत्ते करते हैं , और वर्तमान में पलायन करते पिल्लों की दिशा बतला रही है कि पलायन करने वाले संयुक्त प्रगत्तिशील गठबंधन से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की तरफ लुढ़क रहे हैं l कुछ ऐसी ही राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में लुढकते हुए पहुँच गए सबरी से सांस्कृतिक सरोकार रखने वाली भारतीय जनता पार्टी में साबिर अली ? पहले तो भाजपा में साबिर का स्वागत किया गया लेकिन शीघ्र ही सबरी भक्तों को अपनी गलती समझ में आ गई और इसके विरूद्ध में पार्टी में आवाज उठते देख भारतीय जनता का सब्र टूटने के पूर्व ही भाजपा ने साबिर को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखला दिया गया और पार्टी ने अपनी गलती सुधार ली l चलो भाजपा ने अच्छा किया , वरना भर्त्तीय जनता के -

संकेत सहम जाते  हैं !
संभावना सकते में आ जाते हैं !
संशय जग जाते  हैं !!
माना कि सत्ता के कंटकाकीर्ण मार्ग पर दौड़ नंगे पाँव नहीं होती, जूते पहनने ही पड़ते हैं परन्तु यह स्मरण रखना ही पड़ता है कि यह जूते जीतने के बाद कहीं टोपी न बन जाएँ ? सत्ता में आते - आते सत्ता की गाड़ी के टायर कहीं स्टेयरिंग न बन जाएँ ? "

रविवार, 23 मार्च 2014


अवश्य महँगा पडेगा खान्ग्रेस अर्थात कांग्रेस को भगवा को बदनाम करने के उद्देश्य से आतंकवादी कहना


अवश्य महँगा पडेगा खान्ग्रेस अर्थात कांग्रेस को भगवा को बदनाम करने के उद्देश्य से आतंकवादी कहना 


जिस भगवा की पताका भारतवर्ष के हर घर मे पूजा के समय छत पर पहराई जाती है, यही भगवा पताका थी जो महाभारत के युद्ध मे रथो पर लहरा - फहरा  रही थी, यह वही रंग जो आज भी भारतवर्ष के  राष्‍ट्रीय ध्‍वज तिरंगा मे विद्यमान है। निवर्तमान संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की खांग्रेसी अर्थात कांग्रेस सरकार बहुमत मे थी तो उसे भगवा के गौरवशाली इतिहास को , आर्य सनातन वैदिक हिन्दू धर्म में भगवा के महत्व को जानते हुए भी लगता था कि भगवा रंग आतंक का पर्याय है तो अवलिम्ब संविधान संशोधन करके राष्‍ट्रीय ध्‍वज मे से भगवा रंग को निकलवा देना चाहिये था , क्‍योकि वास्‍वत मे यह ध्‍वज भी भगवा अंश लेने के कारण आतंक का पर्याय हो रहा है।

 वास्‍तव मे भारतीय सभ्यता - संस्कृति के प्रतीक भगवा रंग को आतंकवाद से जोड़कर खान्ग्रेस गठबंधन सरकार द्वारा मुस्लिम तुष्ठिकरण नीति का पालन करते हुए आर्य सनातन वैदिक पुरातन अर्थात प्राचीन संस्कृति को बदनाम करने का कुचक्र रचा जाता  रहा है। जहाँ तक खान्ग्रेस के ‘भगवा आतंकवाद’ कहे जाने का सवाल है तो इसका हकीकत यह है कि खान्ग्रेस वास्तविक आतंकवादियों का बचाने के लिए यह प्रचारित करती  रही है। यह खान्ग्रेस आस्तीन मे सॉप पाल रही है जो -जो देश भक्त है उन्‍हे आतंकवादी धोषित कर रही है। निश्चित रूप से खांग्रेस का यह कुकृत्‍य बहुसंख्यक हिन्‍दु समुदाय कभी नही भूलेगा और निश्चित रूप से हिन्‍दुओ को अपमानित करने का परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा और खान्ग्रेस को भगवा को बदनाम करने के उद्देश्य से आतंकवादी कहना अवश्य महँगा पडेगा ।





सोमवार, 17 मार्च 2014

होलिकोत्सव-नवसस्येष्टि पर्व होली

होलिकोत्सव-नवसस्येष्टि पर्व होली

प्राचीनकाल में आर्य लोगों ने सम्भवतः यह नियम बना लिया होगा कि कोई भी आदमी बिना यज्ञ किये नये अन्न का भोग न करे। हमारे धर्म ग्रन्थों और गृह्यसूत्रों में आया है कि नया अन्न उत्पन्न होने पर "नवसस्येष्टि' नामक यज्ञ करे और जब तक कि उस अन्न से पहले होम न कर ले उसे न खायें। इसको इस प्रकार से और भी स्पष्ट कर दिया है हमारे ऋषियों ने- पर्वण्याग्रयणे कुर्वीत। वसन्ते यवानां शरदि व्रीहीणाम्‌। अग्रपाकस्य पयसि स्थालीपाकं श्रपयित्वा तस्य जुहोति। अर्थात्‌ पर्व में नवीन अन्न से होम करे, वसन्त ऋतु में यवों से और शरद ऋतु में चावलों से इत्यादि।
वास्तव में अन्न परमात्मा को ही महती कृपा से उत्पन्न होता है। यदि उसकी कृपा न हो तो असीम पुरुषार्थ करने पर भी अन्न प्राप्त होना सम्भव नहीं है और हम प्रायः देखते भी हैं कि बनी-बनाई तैयार फसल, जिसे देखकर किसान फूला नहीं समा रहा है, प्रकति के जरा से आघात से बात की बात में चौपट होती देखी जाती है। आर्यपुरुष अपनी इस असमर्थता को भली-भॉंति समझते थे। अतः वे परमात्मा के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते नहीं अघाते थे।
वैदिक नवसस्येष्टि का प्रचलित नाम "होली' पड़ने का कारण तो स्पष्ट ही है। इस अवसर पर (फाल्गुन पूर्णिमा) अन्न (चना, गेहूँ, यव आदि) अर्ध परिपक्व अवस्था में होता है और उसकी बालों, टहनियों को जब आग में भुनते हैं, तो उसकी संज्ञा लोक में "होला' होती है, जैसा कि हमारे साहित्य में लिखा मिलता है-
तृणाग्निभ्रष्टार्द्धपक्वशमीधान्यं होलकः। होला इति हिन्दी भाषा। (शब्दकल्पद्रुमकोश)
अर्थात्‌ जो अर्धपका अन्न आग में भूना जाता है, उसे संस्कृत में होलक कहते हैं और यही शब्द हिन्दी भाषा में "होला' कहलाने लगा।
इस पर्व होली का पौराणिक रूप भी बड़ा शिक्षाप्रद है। हमारे त्यौहारों के साथ कुछ महापुरुषों से सम्बन्धित घटनाएँ भी कालान्तर में जुड़ गई हैं। इसी प्रकार इस पर्व से सम्बन्धित एक आख्यायिका श्रीमद्‌भागवत में कुछ इस प्रकार आती है-
हिरण्यकशिपु एक बड़ा अन्यायी तथा ईश्वर की सत्ता को न मानने वाला राजा था। प्रह्लाद नाम का उस अत्याचारी राजा का पुत्र बड़ा ही आस्तिक और ईश्वरभक्त था। क्योेंकि ईश्वरभक्त प्रह्लाद अपने अन्यायी नास्तिक पिता की बात नहीं मानता और उसकी सत्ता से भी इन्कार करता है। अतः हिरण्यकश्यपु अपने पुत्र की गतिविधियों को पसन्द नहीं करता और उसे रोकने के लिए वह उसे तरह-तरह के कष्ट देता है। परन्तु वह ईश्वरभक्त प्रह्लाद इन कष्टों की लेशमात्र भी चिन्ता नहीं करता। अन्त में नृसिंह नाम का एक अवतार होता है, जो हिरण्यकश्यपु का संहार कर देता है। यह एक अलंकारपूर्ण अत्यन्त शिक्षाप्रद आख्यायिका है। इसका अभिप्राय यही है कि माया जाल में फंसे रहने वाले व्यक्ति का नाम "हिरण्यकश्यपु' है अर्थात्‌ जो सदैव सोना-चांदी, धन-दौलत को ही देखे, उसमें ही ग्रसित रहे।
हिरण्यमेव पश्यतीति हिरण्यकश्यपु, ऐसा निरुक्त के अनुसार आदि और अन्त के अक्षरों का विपर्य्यय होकर "पश्यक' को "कश्यप' बन जाता है। ऐसे मदान्ध लोगों का अन्त में बुरी तरह से नाश होता है। दूसरी ओर परमात्मा की भक्ति में सदा लीन रहने के कारण जिसको आनन्द लाभ होता है, उसे प्रह्लाद कहते हैं। प्रह्लाद स्वयं सताया जाने पर भी सबकी मङ्गल कामना ही करता है। उसका यही कहना था कि ""किसी का कुछ भी हरण नहीं करना चाहिए। जो लोग माया में ही रत रहते हैं और परमात्मा की सत्ता से इन्कार करते हैं, उनका कभी भी आदर नहीं करना चाहिए। अपने चित्त को निर्मल बनाकर परमात्मा की शरण में जाना चाहिए और इस प्रकार आचरण करते हुए भवसागर से पार तर जाना चाहिए।''
आज सारा देश हिरण्यकश्यपु बना हुआ है। प्रह्लाद के समान तो कोई दिखाई ही नहीं देता। सबको रुपया-पैसा, धन-दौलत, वैभव, सत्ता चाहिए, चाहे आये किसी भी न्याय-अन्याय साधनों से। इस लालच, कञ्चन व कामिनी के मतवालों ने अपने हितों के लिए देश-राष्ट्र के हितों की बलि दे डाली। समाचार पत्रों की रिपोर्टों और संसद में विपक्षियों द्वारा उठाये गये अनेक मुद्दों से पता चलता है कि तथाकथित राजनेता,उनके इष्टमित्र और बड़े-बड़े व्यापारी लोग भ्रष्टाचार के मामलों में करोड़ों रुपये हजम कर गये और उस अरबों रुपये की राशि को विदेशी बैंकों में जमा कराकर देश को निर्धन ही नहीं किया, अपितु इसकी अर्थव्यवस्था को भी महान हानि पहुंचाई है। इस प्रकार के लोग यह नहीं समझते कि इस क्षणभंगुर जीवन में इतने अराष्ट्रीय काम करके देश को क्यों हानि पहुंचाई जाये। इस जीवन का कोई भरोसा नहीं कि कब यह कच्चे घड़े की तरह समाप्त हो जाये। किसी सन्त ने ठीक ही तो कहा है-
नर तन है कच्चा घड़ा, लिये फिरे है साथ। 
धाका लागा फुटिया, कछु न आवे हाथ।।
परन्तु आज का मानव हिरण्यकश्यपु की तरह  इन विषय भोगों में फंसकर जीवन के विनाश के परिणामों से इतना लापरवाह हो गया है कि उसने धार्मिकता को तो जीवन में से ऐसा तुच्छ समझकर बाहर फेंक दिया है, जैसे कोई गृहिणी दूध में पड़ी मक्खी को निकालकर फेंक देती है।
अतः इस होली पर्व से सम्बन्धित हिरण्यकश्यपु-प्रह्लाद की पौराणिक कथा से यह शिक्षा आज के मानव को लेनी चाहिए कि हिरण्यकश्यपु की तरह उसका नाश अवश्यम्भावी है। अतः उसको अराष्ट्रीय देशद्रोही कामों से परहेज करना चाहिए। यह तो आध्यात्मिक शिक्षा है। परन्तु इस त्यौहार से एक बड़ी सामाजिक शिक्षा भी मिलती है। वैदिक तथा पौराणिक महत्व के अतिरिक्त इस होली के पर्व की एक सामाजिक विशेषता भी विचारणीय है। स्मृतियों में होली से अगले दिन चैत्र मास की प्रतिपदा को महाअस्पर्श चाण्डाल तक के स्पर्श को भी वैधानिक माना है।

बुधवार, 12 मार्च 2014

वैदिक ग्रंथों में परिवार के सद्व्यवहार

वैदिक ग्रंथों में परिवार के सद्व्यवहार


आकर्षक व्यक्तित्व के निर्माण में जिन तत्वों की अपरिहार्य सहभागिता है, उनका वर्णन इस वेद-मंत्र में हमें सहज ही मिल जाता है। देखिये-

इडे रन्ते हव्ये काम्ये चन्द्रे ज्योति अदिते सरस्वति महि विश्रुति ।
एता ते अध्न्ये नामानि देवेभ्यो मा सुकृतं ब्रूतात्‌॥ यजुर्वेद 8.43

'इडे'- विद्यादि प्रशंसनीय गुण होना आवश्यक है। विद्या से ही कार्य में कुशलता आती है। कार्य-सक्षम होने पर भी अभिमान नहीं होना चाहिये। अभिमानी होने से सक्षम व्यक्ति से भी लोग दूर रहेंगे। विद्या-वृद्धि के साथ-साथ व्यक्ति में नम्रता-सुकोमलता का विकास वैसे ही होना चाहिए, जैसे फलों से लद जाने पर वृक्षों की टहनियां झुक जाती हैं। ऐसा व्यक्ति 'रन्ते' रमणीक-रमणीय सहज व सुन्दर हो जायेगा, तो अन्य लोग उससे श्रद्धा करेंगे और उसके समीप जायेंगे। कुशलता और कोमलता अथवा विद्या ये सुन्दरता - 'हव्ये' अर्थात्‌ हवि या रचनात्मक साधन-सामग्री से परिपूर्ण होनी चाहिये। विद्या-सुन्दरता या वस्तु भण्डार इनमें से कुछ या सब कुछ जब आपके पास होगा, तभी आपका 'काम्ये' कमनीय मनमोहक स्वरूप किसी को अपनी ओर आकर्षित कर सकेगा। लोग अपनी कोई कामना लेकर आपके पास आयेंगे। कामना पूर्ण कर देने पर फिर वही व्यक्ति 'चन्द्रे' अत्यंत आनन्द देने वाला बन जायेगा। चन्द्रमा की चन्द्रिका अपने शीतल प्रकाश के लिये प्रसिद्ध है। यह आदान-प्रदान की सूचक भी है। चन्द्रमा सूर्य से प्रकाश लेता है, पृथ्वी को देता भी है, वह भी सूर्य की प्रचण्ड उष्णता को समाप्त कर मोदमय शीतल स्वरूप में। चन्द्रमा चाहे द्वितीया का हो या पूर्णिमा का उसके राज्य में तारागण मुदते ही नहीं टिमटिमाते रहते हैं, जबकि सूर्य के राज्य में सब छिप जाते हैं, वह अकेला ही रह जाता है। 'चन्द्र' स्वभाव होने पर व्यक्ति 'ज्योति' श्रेष्ठ शील से ज्योतित हो उठेगा। अग्रि की ज्वाला भस्म कर देती है, परन्तु ज्योति प्रकाश ही नहीं देती, अपितु उसे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाती है। एक दीपक से अनेक अनेक दीपक जलते रहते हैं । ज्वाला अपनी लपट में लपेटकर अपने आधार को राख करके स्वयं का अस्तित्व खो देती है, किन्तु दीपक की ज्योति एक परम्परा बन जाती है। परम्परागत त्याग की शक्ति विकसित होने पर व्यक्ति में 'अदिते' -आत्मिक दृढ़ता स्थापित होती है और साथ ही उसे अंधविश्वास एवं आडम्बर से रहित 'सरस्वती'-प्रशंसित विज्ञानमयी बुद्धि और सरस वाणी प्राप्त हो जाती है। यही सरस्वती व्यक्ति को ऊंचा उठाकर 'महि'-चरमोत्कर्ष,सफलता एवं उच्च्ता तक पहुंचा देती है। 'महि' भूमि को भी कहते हैं, जिसका विशेष गुण क्षमा होता है। ''क्षमा बड़न को चाहिए छोटन को उत्पात'' की बात इसी से पूर्ण होती है। इससे यह भी संकेत मिलता है कि आकाश तक सिर ऊंचा उठ जाने पर भी चरण धरती पर जमे रह ने चाहिएं। ऊंचाईयों पर चढ़ने के बाद भी 'विश्रुति'-वेदाध्ययन-पठन-पाठन- स्वाध्याय और अच्छी-अच्छी बातें जानने के लिए अपने मस्तिष्क के द्वार बंद नहीं कर लेने चाहिएं।
उक्त क्रमानुसार जिस व्यक्ति का विकास होगा वह वास्तव में 'अघ्न्ये' अताड़नीय हो जायेगा। जिसका लोग आदर करेंगे, श्रद्धा रखेंगे, प्रेरणा व सहायता प्राप्त करेंगे उसे कौन मारेगा, प्रत्युत उसकी तो भरपूर रक्षा की जाएगी। ये वेद-वर्णित शब्द कोरे सिद्धान्त के बोधक नहीं, अ  पितु नितान्त व्यावहारिक पक्ष प्रस्तुत करते हैं । यदि पत्नि के नाम इडा, रन्ती, हविष्मती, चन्द्रमुखी, ज्योति, अदिति, सरस्वती, मही व श्रुति हो सकते हैं, तो पति के भी इडापति, रन्तिदेव, हविष्मन्त, चन्द्र, ज्योतिस्वरूप, आदित्य, सारस्वत, महीपति व श्रवण नाम हो सकते हैं, जैसे योग्य चिकित्सक एक आरोग्यकारी औषधि का निर्माण करने के लिए भांति-भांति की अनेक जड़ी-बूटियों का मिश्रण तैयार करता है और रोगी को एक छोटी पुड़िया पकड़ा देता है। उसी प्रकार यह वेदमंत्र भी अनेक प्रतीकों के योग से एक सूत्र का सृजन करता है, जो किसी भी व्यक्ति को लोकप्रिय बना सकता हैं। विद्या--रमणीयता--साधन सम्पन्नता--कामनापूर्ति--आनन्द आदान प्रदान--श्रेष्ठ शील युक्त सुकीर्ति--आत्मविश्वास की दृढ़ता--आडम्बर पाखण्डरहित बुद्धि व वाणी--उच्च्ता--आजीवन ज्ञानार्जन व गुण ग्रहण=लोकप्रिय मधुर व्यक्तित्व। यहां पर रेखा (--) के चिन्ह इसलिए अंकित किए गए हैं, क्योंकि एक प्रतीक के होने से दूसरा प्रतीक प्रकट होने लगता है और इन सभी प्रतीकों का महायोग ही लोकप्रियता का अंतिम परिणाम है। साथ ही एक प्रतीक की प्राप्ति का संकेत उससे अगले प्रतीक से होता है। यजुर्वेद अध्याय 33 में एक मन्त्र आता है जिसके अनुसार सब वेदानुयायी चाहते हैं कि -

उप नः सूनव गिरः श्रृण्वत्वमृतस्य ये।
सुमृडीका भवन्तु नः॥ (यजुर्वेद 33.77)

जो हमारी सन्तान हैं, पुत्र- पौत्रादि है, वे अमृतस्वरूप परमेश्वर की वेद वाणियों को गुरु चरण में बैठकर या ज्ञानी वेदज्ञ उपदेशक या संन्यासी महात्माओं के समीप बैठकर श्रवण करें, जिससे कि वे हमारे लिए सुखकर हों ।

इस मन्त्र से एक उपदेश हमें यह मिलता है कि वेद के स्वाध्याय को अपना परमधर्म मानकर नित्य प्रति उसका स्वाध्याय करें, श्रवण, मनन और निदिध्यासन करें । समय-समय पर ज्ञानी वेदज्ञ विद्वानों एवं संन्यासी महात्माओं को अपने परिवारों में बुलाकर उनके प्रवचन कराएं, जिससे कि हमारी आने वाली संतति उन्हें सुने-समझे और उनके अनुकूल आचरण करे। इस प्रकार आचरण करने वाली सन्तति निःसन्देह हमारे लिए सुखकर होगी, यशस्कर होगी।

वेद में पारिवारिक जीवन को सुखमय बनाने के लिए सामूहिक रूप में तथा व्यक्तिगत रूप में भी बहुत सी सुन्दर प्रेरणाएं दी गई हैं। इस प्रसंग में अर्थववेद के ''सांमनस्य सूक्त'' पर विचार किया जा रहा है। इस सूक्त में परस्पर मिलकर द्वेष भाव को छोड़कर इस प्रकार कार्य करने का उपदेश दिया गया है, जिससे हम सब में 'सांमनस्य' उत्पन्न हो, सबके मन में एकीकरण की भावना हो, सहृदयता हो । अर्थात्‌ एक दूसरे के दुःख में दुःख और सुख में सुख अनुभव करने की भावना सदा बढ़ती रहे। इस प्रकार के विस्तृत सामाजिक जीवन का आरम्भ घर से होता है।

परिवार जन किस प्रकार परस्पर सहृदयता, सामंजस्य और अविद्वेष की भावना को अपने में उत्पन्न करें, इसका इस सूक्त के प्रथम मंत्र में वेद हमें उपदेश देता है-

सहृदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि वः।
अन्यो अन्यमभिहर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या॥ (अथर्ववेद 3.30.1)

हे मनुष्यो! मैं तुम्हारे विद्वेष भाव को दूर करता हूं और उसके स्थान पर तुममें सहृदयता तथा सांमनस्य को उत्पन्न करता हूं जिससे कि तुम्हारी एक-दूसरे के प्रति भावना और तुम्हारा एक-दूसरे के प्रति किया हुआ चिन्तन आत्मीयतापूर्वक हो। तुम परस्पर एक-दूसरे को ऐसे चाहो, ऐसे सेह करो, जैसे नवजात बछड़े को गौ माता स्नेह करती है।

इस मन्त्र के द्वारा वेद भगवान उपदेश देते हैं कि हे मनुष्यो ! तुम्हारे अन्दर किन्हीं भी कारणों से एक-दूसरे के प्रति वैर भाव आ गया है, जिसके कारण परस्पर में एक-दूसरे को देखकर तुम्हारे अ्रन्दर प्रीति या तृप्ति नहीं उत्पन्न होती, ऐसे विद्वेष भाव को मैं सर्वथा बाहर निकालकर तुम्हारे अन्दर वे भाव भरना चाहता हूं जिनके परिणामस्वरूप तुम्हें एक-दूसरे को देखकर ऐसी प्रीति, ऐसी तृप्ति अनुभव हो जैसी कि ग्रीष्म ऋतु में एक प्यासे को शीतल जल के प्राप्त हो जाने से मिल जाती है। इसके लिए मैं तुममें 'सहृदयता' लाना चाहता हूं। सहृदयता क्या है ? परिवार में एक-दूसरे के दुःख को देखकर दुःख और सुख को देखकर सुख अनुभव करना ही सहृदयता कहलाती है। जिस परिवार के सदस्यों में सहृदयता नहीं होती उस परिवार के सदस्यों में प्रीति अर्थात्‌ एक-दूसरे को देखकर तृप्ति का अनुभव होना असंभव है। इसलिए जो महानुभाव अपने परिवार में प्रीति की बेल बोना चाहते हैं, उन्हें उसकी जड़ों को सहृदयता के जल से सींचना होगा। तभी वह बेल हरी-भरी अर्थात्‌ फल-फूल सकेगी।

जहां सहृदयता होगी, वहीं पर सांमनस्य पनप सकेगा अर्थात्‌ एक दूसरे के प्रति स्वाभाविक रूप से मन में शुभ विचारों की सृष्टि होंगी। चूंकि मन के अधीन सम्पूर्ण इन्द्रियां होती है इसलिए जैसे मन के विचार होते है वैसे ही अन्य सब इन्द्रियों के व्यवहार होते हैं। अतह्न अन्य सब इन्द्रियों से उत्तम और प्रशस्त व्यवहारों की सृष्टि उत्पन्न करने के लिए मन में शुभ विचारों का होना आवश्यक है तथा शुभ विचारों के लिए परस्पर मे सहृदयता की आवश्यकता होती है और सहृदयता तब उत्पन्न होती है जब मनुष्य विद्वेष को छोड़कर एक दूसरे के दुःख और सुख में दुःख और सुख का अनुभव करने लगे। ऐसा करने पर हमारे जीवन में अगला उपदेश सहज ही समा सकेगा। वह यह है कि तुम एक दूसरे को ऐसे चाहो-एक दूसरे से ऐसा सेहपूर्ण व्यवहार करो जैसे गौ अपने नवजात बछड़े से करती है।

पारिवारिक जीवन में आगे वेद परस्पर व्यावहारिक जीवन पर प्रकाश डालता है-

अनुव्रतः पितुः पुत्रो मात्रा भवतु संमनाः।
जाया पत्ये मधुवर्तीं वाचं वदतु शांतिवाम्‌॥ (अथर्ववेद 3.30.2)

पुत्र पिता का अनुव्रती-अनुकूल कर्म करने वाला अर्थात्‌ आज्ञाकारी हो और माता के साथ एक मन होकर आचरण करने वाला हो। पत्नी पति के प्रति मधुमयी शान्तिदायक वाणी बोले।

इस मन्त्र में वेद ने आदेश दिया है कि परिवार में पुत्र का कर्तव्य है कि वह पिता का अनुव्रती हो। इस वाक्य से पुत्री भी पिता के अनुकूल आचरण करे, ऐसा ग्रहण कर लेना चाहिए।

वेद के इस उपदेश से मनुष्य के मन में यह संदेह उत्पन्न हो सकता है कि क्या पिता की सभी आज्ञाओं का पालन करना चाहिए ? अनेक बार ऐसी घटनाएं देखी जाती हैं, जिनमें एक पिता पुत्र को गोदी में बिठाकर स्वयं बीड़ी पीता हुआ उसे भी पीने को प्रेरित करता हुआ प्यार से उसके मुख में अपने ही हाथ से बीड़ी रखता है। इसी प्रकार एक पिता अपने बेटे को अच्छे साहित्य के पड़ने और सत्संग में जाने से रोकता है,एक बेटे को मांस अण्डे खाने को प्रेरित करता है- यह सोचकर कि बेटा शक्तिशाली बनेगा इत्यादि। इस प्रकार के संदेहों का वेद ने बहुत ही सुन्दर रूप से निवारण कर दिया है। वेद ने यहां 'अनुव्रत' शब्द दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसके पिता के जीवन में जो व्रत हों, श्रेष्ठ कर्म हों या उनके जो आदेश श्रेष्ठ हों ''व्रतमनु इति अनुव्रत'' उन्हीं के अनुकूल चलना, उन्हीं को मानना ही पुत्र का धर्म है। इसके विपरीत अपने पिता के असद् उपदेशों और उलटे कार्यों का शिष्टाचार एवं मधुरता पूर्वक समझा-बुझाकर परित्याग करना ही उसका कर्तव्य है। इसी प्रकार पुत्र एवं पुत्री अपनी माता के मन से अपना मन एक करके अर्थात्‌ उनकी मनोभावनाओं का यथेष्ट सम्मान करते हुए व्यवहार करें।

परिवार में जहां माता-पिता अपनी आने वाली सन्तान से यह आशा रखें वहां उनका स्वयं का भी कर्तव्य है कि उनके सम्मुख जीवन में पग-पग पर अपने व्यवहार द्वारा ऐसा आदर्श उपस्थित करें कि जिसे देखकर उन्हें अर्थात्‌ बालकों को अपने माता-पिता पर गर्व अनुभव हो और वे अपने आपको भाग्यशाली समझें तथा प्रभु का हृदय से धन्यवाद करें, जिसने उन्हें ऐसे अच्छे आदर्श धार्मिक माता-पिता प्रदान किये। उनका संतान के प्रति उपदेश शब्दों से नहीं अपितु व्यवहारों से प्रस्फुरित हो। इसलिए वेद ने कहा कि पत्नी को पति से मधु के समान मधुर शान्तिमय सम्भाषण करना चाहिये और ऐसा ही पति को भी। पति-पत्नी का परस्पर का यह आदर्श दिव्य व्यवहार आने वाली सन्तति के लिए जीवन में पग-पग पर प्रेरणा का स्त्रोत बनता रहेगा । ऐसा आदर्श जीवन होने पर समय-समय पर यदि आवश्यकता पड़ने पर कुछ उपदेश भी माता-पिता द्वारा दिया जायेगा तो सन्तान उस उपदेश को श्रद्धापूर्वक शिरोधार्य करने में सुख अनुभव करेगी ।
इसके अनन्तर परिवार में एक पुत्र या पुत्री के उत्पन्न होने के पश्चात यदि दूसरा पुत्र या पुत्री उत्पन्न हो, तो उसका माता-पिता के प्रति तो वही व्यवहार रहना चाहिये जो उपर्युक्त मन्त्र में निर्देश किया गया है। परंतु उनका परस्पर में कैसा व्यवहार होना चाहिये, इसके सम्बन्ध में वेद उपदेश देता है-

मा भ्राता भ्रातारं द्विक्षन्‌ मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यंचः सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया॥ (अथर्ववेद 3.30.3)

भाई भाई से द्वेष न करें, बहिन बहिन से द्वेष न करें, समान गति से एक-दूसरे का आदर सम्मान करते हुए परस्पर मिल जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एक मत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर सम्भाषण करो।

इस मन्त्र में जहां यह बतलाया गया है कि भाई, भाई से और बहिन, बहिन से द्वेष न करें, वहां इससे यह उपदेश भी ग्रहण करना चाहिए कि भाई, बहिन से और बहिन, भाई से भी द्वेष न करें। भाई-भाई को, बहिन-बहिन को, भाई-बहिन को और बहिन-भाई को परस्पर में ऐसा व्यवहार करना चाहिये, जिससे वे एक दूसरे को देखकर तृप्त हों, गद् हों। वे सदा एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए सेहपूर्वक मिलजुल कर कार्य करें और लक्ष्य की प्राप्ति के लिए समान रूप से प्रयत्नशील रहें। उनके व्रत-कर्म समान हों, श्रेष्ठ हों। यह समान कर्म और समान भाव से उनका किया हुआ पुरुषार्थ उनको निश्चित रूप से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर करता रहेगा।

इस प्रकार पारिवारिक अभ्युत्थान में संलग्र भाई-बहिनों को परस्पर में सम्भाषण भी ऐसा करना चाहिये, जो भद्र भाव से परिपूर्ण हो अर्थात्‌ बोलते समय यह विचारकर सब बोलें कि हमारे बोलने में कल्याण हो। अपवाद को छोड़कर दुर्भाग्य से आज परिवारों में भाई-भाई आदि वह वाणी भी नहीं बोल पाते, जो उनके इस लोक को ही सुखमय बना सके, परलोक की बात तो क्या कहें? फिर भी आश्चर्य है कि आज हम अपने आपको सभ्यता के उच्च् शिखर पर विराजमान अनुभव करते हैं।
वास्तव में इन वैदिक दिव्य व्यवहारों से जो परिवार सम्पन्न रहेगा, वह कितना धन्य होगा !
सूक्त के अग्रिम मन्त्र में वेद उपदेश देता है कि-

येन देवा न वियन्ति नच विद्विषते मिथाः।
तत्कृण्मो ब्रह्म वो गृहे संज्ञानं पुरुषेभ्यः॥ (अथर्ववेद 3.30.4)

हे मनुष्यो! जिससे देवजन परस्पर पृथक-पृथक नहीं होते और न ही परस्पर विद्वेष करते है अर्थात्‌ जिसको पाकर देव जन सदा संगठित रहते हैं और एक दूसरे को देखकर फूले नहीं समाते, वह परस्पर एकता उत्पन्न करने वाला दिव्य ज्ञान तुम्हारे घर में सबके लिए समान रूप से प्राप्त हो।

इस मन्त्र से यह भाव निकलता है कि जो दिव्य ज्ञान सदा देवों को एक सूत्र में पिरोए रखता है, उनमें परस्पर प्रेम की गंगा बहाए रखता है, जिसके कारण न तो वे एक दूसरे के विपरीत आचरण करते हैं और न ही परस्पर में वे द्वेष करते हैं । तब वह दिव्य पावन ज्ञान हम एक ही कुटुम्ब के वासी मनुष्यों को, जो रक्त सम्बन्ध से वैसे ही एक दूसरे के साथ अपनत्व अनुभव करते है, क्यों नहीं संगठन और सेह के पावन सू.त्र में हमें पिरो सकेगा ? अवश्य ही वह दिव्य ज्ञान हमें परस्पर इतना निकट ले आएगा, ऐसे सेह सूत्र में पिरो देगा कि यह परिवार एक आदर्श परिवार के रूप में खड़ा होकर दूसरों को लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन जायेगा।
वेद पुनः आगे उपदेश देता है -

ज्यायस्वन्तश्चितिनो मा वियौष्ट संराधयन्तः सधुराश्चरन्तः।
अन्यो अन्यस्मै वल्गु वदन्त एत सध्रीचीनान्‌ वः संमनसस्कृणोमि (अथर्ववेद 3.30.5)

हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो ! परिवार में वृद्धों का सम्मार करने वाले, सम्यक्‌ ज्ञान के धनी, एक साथ मिलकर कार्य को सिद्ध करने वाले, एक धुरी के नीचे रहकर कार्य करने वाले अर्थात्‌ कार्य भार को मिलकर आगे बढाने वाले तुम लोग परस्पर पृथक्‌ मत होवो। तुम सब कार्य करते हुए एक दूसरे से सदा सेह आदि सम्मान पूर्वक बातचीत करते हुए आगे बढो। मै तुम सबको, एक साथ मिल-जुलकर कार्य करने वालों को समान मन वाला बनाता हूं, जिससे तुम अपने उद्देश्य में सदा सफल होते रहो।

इस प्रकार एक परिवार में वृद्धों को सम्मान मिलता रहे, छोटों को प्यार, आशीर्वाद तथा उत्साह मिलता रहे और सब मिल जुल कर प्रेमपूर्वक परिवार के अभ्युत्थान में कृतसंकल्प हो जायें, तो उस परिवार के सुख-सौभाग्य में सन्देह रह ही नहीं सकता।
परन्तु इस प्रकार परिवार में मिल जुलकर प्रेमपूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप घर में जो वैभव आए, उसके उपभोग में यदि कहीं भी भेदभाव आ गया, तो परिवार के संगठन को ठेस लगने की सम्भावना
हो सकती है। अतः वेद अग्रिम मन्त्र (अथर्व.-3.30.6) में उपदेश देता है-

हे परिवार में प्रेमपूर्वक निवास करने वाले मनुष्यो ! तुम्हारा दुग्धादि पदार्थों का पान समान हो, तुम्हारा भोजन एक जैसा हो और साथ-साथ हो अर्थात्‌ तुम्हारा खानपान एक जैसा हो, उसमें किसी प्रकार का भेदभाव न हो। प्रेमपूर्वक सब एक साथ मिलकर खाओ-पीओ, भले ही तुम्हारे पात्र पृथक्‌-पृथक्‌ हों। क्योंकि इस प्रकार मिलकर साथ बैठकर खाने का भी एक अपने ढंग का आनन्द है। एक जुए में, मैं तुम सबको साथ -साथ जोड़ता हूं अर्थात्‌ तुम सब अपने आपको एक ही परिवार के संगठन में ऐसे बंधा हुआ समझो, जैसे कि रथ की नाभि के चहुं ओर अरे जुडे हुए होते हैं। इस प्रकार तुम सब मिलकर एक दूसरे का आदर सम्मान करते हुए प्रकाश स्वरूप प्रभु की पूजा करो, अग्रिहोत्र अर्थात्‌ यज्ञ करो अथवा मिलजुल कर एक जैसी संकल्पाग्रि को मन में प्रज्ज्वलित करो और उसमें अपनी-अपनी सेवा की आहुति प्रदान कर घर के वातावरण को सुगन्धित करो।

इस मन्त्र के आधार पर जिस परिवार में सभी मनुष्य प्रातह्नकाल उठकर नहा धोकर एक साथ बैठकर जब संध्या उपासना और भजन करते होंगे, सब मिलकर वेद के पावन मन्त्रों से अग्रि देवता के चारों ओर बैठकर यज्ञ करते होंगे, अपने-अपने भाग की आहुति देते होंगे, सब मिलकर परिवार के अभ्युत्थान के लिए मनों में संकल्पाग्रि को प्रज्ज्वलित करते होंगे, पुनह्न सब एक साथ बैठकर दुग्धादि पदार्थों का पान एवं भोजन करते होंगे, मिलकर कार्य करते होंगे, मिलकर स्वाध्याय-सत्संग तथा शयनादि के पावन मन्त्रों का पाठ करने के उपरान्त जब सो जाते होंगे, तो उनका केवल मात्र दैनिक व्यवहार ही प्रसन्नता और प्रेरणा का स्त्रोत नहीं रहेगा, बल्कि उनका चैन से सोना भी सबको अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहेगा।
वेद आगे कहता है कि -

सध्रीचीनान्‌ वः सम्मनसस्कृणोम्येकश्नुष्टीन्त्संवननेन सर्वान्‌।
देवा इवाअमृतं रक्षमाणाः सायं प्रातः सौमनसो वो अस्तु॥ (अथर्ववेद-3.30.7)

इस प्रकार परस्पर मिलजुल कर पदार्थों के सेवन से या उत्तम सेवा भाव से तुम सबको एक साथ मिलकर पुरुषार्थ करने वाला, एक मन होकर विचार करने वाला तथा परिवार में एक को अपना बड़ा मानकर उसकी आज्ञा में चलने वाला या एक ध्येय को लेकर कार्य करने वाला बनाता हूं। अपने अमरत्व की रक्षा करते हुए देवों के समान प्रातह्न सायं तुम सबका सौमनत्व बना रहे।

इस मन्त्र का भाव यह है कि परिवार के सभी सदस्य जब एक साथ मिलकर बिना भेदभाव के परिवार के पदार्थों का उपभोग करते हैं, तो वे सब उस घर के अभ्युत्थान के लिये अपनी-अपनी योग्यता और सामर्थ्य के अनुसार समान रूप से एक पताका के नीचे उद्योग करते रहते हैं। ऐसा करते हुए वे सब अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफल होते हैं।

सूक्त के उपसंहार में वेद हमें एक सारगर्भित उपदेश देता है, वह यह कि हे परिवार में निवास करने वाले मनुष्यो! जैसे देवजन ज्ञानी महानुभाव सभी प्रकार से अपने अमरत्व की रक्षा करते हैं अर्थात्‌ जगत्‌ से विदा हो जाने के उपरान्त भी अपने कार्यों से अपने को अमर बनाकर सुदीर्घ काल तक आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा के स्त्रोत बने रहते है, वैसे ही तुम्हारे इस वैदिक आदर्श परिवार का मूल मन्त्र 'सौमनस' हो। यदि तुममें 'सौमनस' बना रहा तो सुमन के परिणामस्वरूप तुम सुमन (पुष्प=फूल) के समान खिल जाओगे, प्रसन्नता से विभोर हो जाओगे और अपने परिवाररूपी वाटिका के सुमनों के खिल जाने के परिणामस्वरूप अपने सत्कर्मों की पावन सुगन्धि से सारे वातावरण को सुगन्धित कर सकोगे।

भगवान हर मनुष्य को ऐसी सद्बुद्धि और सामर्थ्य प्रदान करे, जिससे कि वह अपने परिवार को आदर्श परिवार के रूप में खड़ा कर सके, क्योंकि ऐसा करके ही वह परिवार स्वयं सुखी हो सकेगा और अन्यों के लिए भी प्रेरणा का स्त्रोत बन सकेगा ।

महाभारत कालीन विमान


महाभारत कालीन विमान 


5000 साल पहले का "विमान" मिला है
 ओसामा बिन लादेन नामक इस्लामी आतंकवादी को खोजते हुए अमेरिका के सैनिकों को अफगानिस्तान (कंधार) की एक गुफा में 5000 साल पहले का "विमान" मिला है ,जिसे महाभारत काल का बताया जा गया है !

सिर्फ इतना ही नहीं वरन् 
Russian Foreign Intelligence ने साफ़ साफ़ बताया है कि ये वही विमान है जो संस्कृत रचित महाभारत में वर्णित है |जब इसका इंजन शुरू होता है तो बड़ी मात्रा में प्रकाश का उत्सर्जन होता है।
हालाँकि इस न्यूज़ को भारत के बिकाऊ मिडिया ने महत्व नहीं दिया क्यों कि, उनकी नजर में भारत के हम हिंदूओ ( आर्यो ) की महिमा बढ़ाने वाली ये खबर सांप्रदायिक है !!

ज्ञातव्य है कि Russian Foreign Intelligence Service (SVR) report द्वारा 21 December 2010 को एक रिपोर्ट प्रस्तुत की गयी जिसमे बताया गया था कि ये विमान द्वारा उत्पन्न एक रहस्यमयी Time Well क्षेत्र है - जिसकी खतरनाक electromagnetic shockwave से ये अमेरिका के कमांडो मारे गये या गायब हो गये तथा इस की वजह से कोई गुफा में नहीं जा पा रहा।

शायद आप लोगों को याद होगा कि महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी एवं मामा शकुनि गंधार के ही थे |

महाभारत में इस विमान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि...

हम एक विमान जिसमे कि चार मजबूत पहिये लगे हुए हैं, एवं परिधि में बारह हाथ के हैं | इसके अलावा 'प्रज्वलन पक्षेपात्रों ' से सुसज्जित है | परिपत्र 'परावर्तक' के माध्यम से संचालित होता है और उसके अन्य घातक हथियारों का इस्तेमाल करते हैं !

जब उसे किसी भी लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित कर पक्षेपित किया जाता है तो, तुरंत वह अपनी शक्ति के साथ लक्ष्य को भस्म कर देता है यह जाते समय एक 'प्रकाश पुंज' का उत्पादन करता हैं !

( स्पष्ट बात है कि यहां महाभारत काल में विमान एवं मिसाइल की बात की जा रही है )

हमारे महाभारत के इसी बात को US Military के scientists सत्यापित करते हुए यह बताते हैं कि ये विमान 5000 हज़ार पुराना (महाभारत कालीन) है, 
और जब कमांडो इसे निकालने का प्रयास कर रहे थे तो ये सक्रिय हो गया जिससे इसके चारों और Time Well क्षेत्र उत्पन्न हो गया और यही क्षेत्र विमान को पकडे हुए है इसीलिए इस Time Well क्षेत्र के सक्रिय होने के बाद 8 सील कमांडो गायब हो गए।

जानकारी के लिए बता दूँ की Time Well क्षेत्र " विद्युत-चुम्बकीय " क्षेत्र होता है जो हमारे आकाश गंगा की तरह सर्पिलाकार होता है ।

वहीं एक कदम आगे बढ़ कर Russian Foreign Intelligence ने तो साफ़ साफ़ बताया कि ये वही विमान है जो संस्कृत रचित महाभारत में वर्णित है।

सिर्फ इतना ही नहीं SVR report का कहना है कि यह क्षेत्र 5 August को फिर सक्रिय हुआ था जिससे एक बार फिर electromagnetic shockwave नामक खतरनाक किरणें उत्पन्न हुई और ये इतनी खतरनाक थी कि इससे 40 सिपाही तथा trained German Shepherd dogs भी इसकी चपेट में आ गए।

ये प्रत्यक्ष प्रमाण है हमारे हिन्दू(आर्य) सनातन धर्म के उत्कृष्ट विज्ञान का और यह साफ साफ तमाचा है उन सेकुलरों( मुस्लिमों / ईसाईयों के हिमायतीयो ) के मुंह पर जो हमारे हिन्दू सनातन धर्म पर उंगली उठाते हैं और जिन्हें रामायण और महाभारत एक काल्पनिक कथा मात्र लगती है..!

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

प्रथम स्वधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही झारखण्ड प्रान्त के गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया -अशोक "प्रवृद्ध"

प्रथम स्वधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही झारखण्ड प्रान्त के गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अर्थात तेलंगा खड़िया
अशोक "प्रवृद्ध"

झारखण्ड प्रांत के गुमला जिला के सिसई प्रखण्ड अन्तर्गत
मुरूनगुर ग्राम (आज का मुर्गु ग्राम) के पाहन और नागवंशी महाराजा रातुगढ़ के भण्डारी ठुईया खड़िया एवं पेतो खड़िया (खडियाईन) के यहाँ 9 फरवरी 1806 को जन्म हुए पुत्र तेSबलंगा खड़िया बाल्यकाल से ही निडर और श्याम वर्ण का लंबा-छरहरा देखने में एक खूबसूरत नौजवान था। वह बचपन से ही बहुत बाचाल अर्थात अत्यधिक बोलने वाला बालक था और खड़िया भाषा में बहुत बोलने वाले बाचाल व्यक्ति को  तेSबलंगा कहा जाता है । इसीलिए ठुइया खड़िया के अत्यधिक बोलने वाले पुत्र को तेSबलंगा कहा जाने लगा । बाद में यही तेSबलंगा कहलाने वाला बालक तेलंगा के नाम से प्रसिद्ध होकर अन्ग्रेजों के लिए सिर दर्द साबित हुआ ।

अपने संगी - साथियों के साथ तेSबलंगा मुरूनगुर और आसपास के जंगलों में निर्भीक घूमा करता था। खड़िया लोकगीतों के अनुसार एक बार तेSबलंगा (तेलंगा) अपने साथियों के साथ जंगल से घर लौट रहा था, कि रास्ते में शाम हो गयी । अभी गांव के मुहाने पर पहुँचने में कुछ देर थी कि तेलंगा के साथियों ने अंधेरे में दो चमकती आंखें देखी और भयभीत हो तेSबलंगा (तेलंगा) को पूकारने लगे । तेSबलंगा (तेलंगा) के साथियों ने मारे भय के मारे तेSबलंगा (तेलंगा) को घेर लिया। तेSबलंगा (तेलंगा) समझते देर नहीं लगी कि दो चमकती आंखें बाघ की है जो घात लगाए अपने शिकार को देख रहा है । तेSबलंगा (तेलंगा) को अपनी फिक्र नहीं थी, वह सोच रहा था कि उसके किसी भी साथी को कुछ होना नहीं चाहिए, नहीं तो अपने साथियों के माता-पिता को वो क्या जबाव देगा ? तेSबलंगा (तेलंगा) अपने बल और बुद्धि से परिस्थिति को भांफ गया और अपने सभी छह साथियों को पेड़ पर चढ़ जाने को कहा। तेSबलंगा ( तेलंगा) के सभी साथी भय से कांप रहे थे, धुंधलाती - गहराती शाम वातावरण को और भी डरावना बना रही थी। तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपने सभी साथियों को सहारा दे-देकर पेड़ में चढ़ा दिया । नजदीकी सरगोशियों से बाघ चौंकनना हो गया और एक लंबी छलांग मार कर तेSबलंगा (तेलंगा), जो अब तक पेड़ पर नहीं चढ़ पाया था, को अपने पंजों से दबोच लिया । तेलंगा बड़ा ही चुस्त और ताकतवर था उसने बाघ के अगले दो पंजों को अपने हाथों से पकड़ लिया और कहते है कि तेलंगा की पकड़ बाघ पर मजबूत होते - होते इतनी मजबूत हो गई थी कि बाघ हिल तक नहीं सका। सुनने में यह असंभव सा जान पड़ता है परंतु है खड़िया लोकगीतों व कथाओं के अनुसार है यह सत्य। शुद्ध हवाओं में जीने वाला तेSबलंगा (तेलंगा),दूध और दही का सेवन करने वाला तेSबलंगा (तेलंगा) और जंगलों को अपने पैरों से रौंदने वाला तेSबलंगा (तेलंगा) की बाहों में बाघ से ज्यादा ताकत होना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। बाघ पर तेSबलंगा (तेलंगा) ने शीघ्र ही काबू पा लिया। अगर चाहता तो वह बाघ को अपने कमर में लटक रहे छूरे से मार भी सकता था परंतु तेSबलंगा (तेलंगा) था स्वभाव का बड़ा दयालु। बाघ को कमजोर पड़ते देखकर तेSबलंगा (तेलंगा) को अपनी ताकत पर घमंड़ नहीं हुआ बल्कि बाघ पर दया आ गयी और उसने बाघ को भाग जाने का मौका दे दिया । बाघ जिस प्रकार छलांग लगा कर तेSबलंगा (तेलंगा) पर झापटा था उसी प्रकार छलांग लगाकर जंगल के अंधेरे में भाग खड़ा हुआ।

तेSबलंगा (तेलंगा) के साथी उसे कोस रहे थे कि हाथ आए बाघ को उसने क्यों जाने दिया ? बाघ के सामने तो सभी की घिग्घी बंध गयी थी और जब बाघ पर तेSबलंगा (तेंलगा) ने काबू पा लिया तो अपने सभी साथियों को शेर बनते देख तेSबलंगा (तेलंगा) ने  अपने साथियों को समझाया कि कमजोर पड़े इंसान या जानवर को क्षमा अर्थात माफ़ कर देना चाहिए । क्षमा करना वीरों अरथात ताकतवरों का कार्य है, कमजोर माफ करना नहीं जानते। अब देखो न , बाघ तो भाग गया, तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपने साथियों को कहा और तुमलोग जानते हो न बाघ मुझे पहचान गया है अब कभी वह हमलोगों पर हमला नहीं करेगा। बात करते - करते तेSबलंगा (तेलंगा) अपने साथियों के साथ गांव पहुंच चुका था। गांव के लोगों को तेSबलंगा (तेलंगा) पर इतना विश्वास था कि अगर तेSबलंगा (तेलंगा) साथ है तो कोई फिक्र की बात नहीं है और इसी विश्वास को कायम रखने के लिए वह बाघ से लड़ने के लिए तैयार हो भिड़ गया था।

जंगल में फैले चारों तरफ उंचे-उंचे सखुआ , महुआ , पलाश, देवदारों के घने दरख्तों से छन-छन कर आती सुबह की सूर्य की किरणों को अपलक निहारना तेSबलंगा (तेलंगा) को अच्छा व मनोहारी लगता था और यह उसका मुख्य शौक (शगल) था। जंगल के बीचोंबीच स्थित दक्षिणी कोयल नदी के अम्बाघाघ नामक जलप्रपात के चट्टानों पर लेट कर बांसुरी की टेर छेड़ना अर्थात बांसुरी बजाना तेSबलंगा (तेलंगा) का दूसरा मुख्य शौक था। धूप में बदन को तपते छोड़कर बांसूरी की धुन जब तेलंगा छेड़ता था तो मानो जंगल के पेड़-पौधे, पशु-पक्षी सभी मंत्रमुग्ध हो जाते थे। गांव की युवतियाॅं झुण्ड बना कर जलप्रपात में स्नान करने और जंगल से फलों , पतियाँ , जलावन की लकड़ी व अन्यान्य वन्योत्पाद को तोड़ अथवा चुन कर ले जाने के लिए प्रतिदिन आती और तेलंगा के बासूरी के धुनों को सुन ठिठक कर खड़ी ही रह जाती। ये ग्रामीण बालाएं मन ही मन सोचा करती थी कि तेलंगा किसका होगा , यह किसका पति बनेगा ? सभी बालाओं में तेलंगा को अपनी ओर आकर्षित करने की , रिझाने की होड़ सी लगी रहती पर तेलंगा था कि लडकियों से दूर-दूर ही रहता , वह किसी को घास ही नहीं डालता । उसका मन सिर्फ और सिर्फ अपने समाज , गाँव और क्षेत्र के आदिवासी - गैरआदिवासी लोगों को संगठित कर परतंत्र भारतवर्ष को स्वाधीन करने के लिए जगह-जगह जन अभियान चलाने अथवा बैठकें आयोजित करने में ही लगा करता था । तेलंगा खड़िया सहृदय समाजसेवी थे। तेSबलंगा अर्थात तेलंगा खड़िया को आदि सनातन सरना धर्म पर अटूट व अगाध विश्वास था । एक किसान होने के साथ-साथ ये अस्त्र-शस्त्र चलाना भी जानते थे तथा अपने लोगों को इसकी शिक्षा भी देते थे । कुछ इसी तरह लगभग उनचालीस वर्ष गुजर गए , परन्तु तेSबलंगा को देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं सुहाता था ।

इसी समय की बात है । एक दिन तेSबलंगा (तेलंगा) अम्बाघाघ की जलप्रपात की चट्टान पर लेटा अपनी धुन में बांसूरी बजा रहा था कि उसे ‘बचाओ-बचाओ’ का शोर सुनाई दिया। तेSबलंगा
(तेलंगा) ने बांसूरी बजाना बंद कर आ रहे शोर की ओर अपने कान लगा दिए । आवाज जिधर से आ रही थी , उधर देखने से उसे ऐसा महसूस हुआ कि झरने के उपर से आठ-दस युवतियां ‘बचाओ-बचाओ’  की शोर मचाते हुये चिल्ला रही थी और नीचे गिर रहे जलप्रपात की ओर इशारा कर रही थी। तेSबलंगा
(तेलंगा) को समझते देर नहीं लगी कि इनमें से कोई युवती जलप्रपात में गिर गयी है। अम्बाघाघ के जलप्रपात में एक युवती के गिरने की बात जानते और समझते ही बिना समय गवाएं ही तेSबलंगा (तेलंगा) ने जलप्रपात में छलांग लगा दिया। कहा जाता है कि उस जलप्रपात की गहराईयों को सदियों से आज तक कोई माप नहीं सका था, लेकिन तेSबलंगा (तेलंगा) को इसकी फिक्र कहां थी ? वह तो योद्धा था, सब गुण आगर , तैरने में निपुण। अपने फौलादी बांहों से जलप्रपात के निकट तीव्र गति से बहती जल के वेग को चिरता हुआ वह तेजी से बहती जा रही युवती के निकट शीघ्र ही पहुंच गया और देखते ही देखते तेSबलंगा (तेलंगा) की बांहों में थी वह अम्बाघाघ में डूबती हुई युवती। उस युवती को पानी से बाहर निकालकर तेSबलंगा (तेलंगा) ने चट्टान पर लिटा दिया । तब तक उस युवती की सहेलियां वहां पहुंच चुकी थी और रतनी-रतनी कह कर उसे घेर पुकार रही थी । तेSबलंगा (तेलंगा) को पहली बार किसी युवती को अपने बांहों में उठाने का अवसर मिला था, किसी युवती की इतनी नजदीकियों का अहसास उसे जीवन में पहली बार हुआ था । इसलिए तेSबलंगा (तेलंगा) को अपने शरीर में एक अजीब , और अनोखी सिहरन सी महसूस हो रही थी ।

उसकी सहेलियां जिसे रतनी-रतनी कह कर पुकार रही थी वह अब होश में आने लगी थी । रतनी ने मुंह से पानी की उल्टियां की और थोडी देर में उठ कर बैठ गयी। तेSबलंगा (तेलंगा) ने पहली बार किसी युवती को इतने गौर और नजदीक से देखा था ,महसूस किया था । रतनी के श्यामल रूप में एक अदभूत आकर्षण था , जो तेSबलंगा (तेलंगा) को बरबस ही अपनी ओर खींच रहा था परंतु वह जड़ बना बस रतनी को ही देखे जा रहा था। रतनी को जब पता चला कि उसे पास खड़े नौजवान तेSबलंगा (तेलंगा) ने जान पर खेलकर अम्बाघाघ में डुबने से बचाया है तो रतनी के मन में भी तेSबलंगा (तेलंगा) के प्रति एक आकर्षण जागता हुआ सा महसूस हुआ। रतनी मन ही मन सोचने लगी थी कि काश इस वख्त उसकी सहेलियां अगर अभी साथ नहीं होती तो ढेर सारी बातें वो इस नवजवान से करती, उधर तेSबलंगा (तेलंगा) की भी कुछ ऐसी ही ईच्छा हो रही थी। ऐसी ही स्थिति में काफी समय बीत गई और रतनी अब बिल्कुल ठीक महसूस कर रही थी, वह उठ खडी हुयी और पास खडे तेSबलंगा (तेलंगा) के समीप जा कर कहा कि ‘‘अगर आज आप यहां नहीं होते तो मैं घाघ में डूब मर ही गयी होती।’’ तेSबलंगा (तेलंगा) रतनी की मधुर सुरीली आवाज को सुनकर जैसे मंत्रमुग्ध सा हो गया था। उसने कोई जबाव नहीं दिया, सिर्फ खडा-खडा रतनी को पूर्ववत देखता रहा।

जल्दी ही रतनी अपने सहेलियों के साथ गांव की ओर चली गयी। तेSबलंगा (तेलंगा) रतनी के जाने के बाद भी अपने बांसुरी के साथ वहां काफी देर तक अपने अंदर तरह-तरह के ख्यालों में खोया सा बैठा रहा। उसे अब बांसुरी बजाने का आनंद कुछ अलग सा महसूस हो रहा था। कहते है न कि दिल की आवाज ही साज बनकर निकलती है और जब किसी पर दिल आ जाता है तो साज के सहारे दिल की धडकती आवाज भी निकलने लगती है। यही कुछ हुआ तेSबलंगा के साथ भी, उसकी बांसुरी की धून दर्दीली हो गयी थी जिसे सूनकर पशु-पक्षी, पेड-पौधे भी कोलाहल करना बन्द कर मानो शांति से बांसुरी की दर्दीली धुन को सुनने लगे थे। झरने तक अपनी प्यास बुझाने के उद्देश्य से आए बाघ, चीता, भालू आदि हिन्श्र जन्तुओं के साथ ही हिरण , बकरी , गाय आदि कमजोर पशु भी पानी पीकर मंत्रमुग्ध से वहीं ठिठक से गए थे। निसंदेह संगीत की भाषा सशक्त होती है जो प्रकृति के सभी प्राणियों को आनंदित करती है। एक अद्वितीय दृश्य का सृजन हो चुका था वहां जब तेSबलंगा के बांसुरी के धुन में कोयल ने अपनी कू - कू कुहुकने के स्वर को इस तरह मिलाया कि ऐसा मालूम होता था कि कोई संगीतकार के बताए अनुसार लय और ताल को ध्यान में रखते हुए तेSबलंगा (तेलंगा) और पपीहे ने जुगलबंदी कर ली हो। तेSबलंगा (तेलंगा) भी इस जुगलबंदी का आनंद लेता रहा और उसे पता ही नही चला कि कब शाम हो गयी? उस रात न जाने क्यों तेSबलंगा को सिर्फ रतनी की ही याद आती रही?

तेSबलंगा (तेलंगा) की माँ ने इससे पहले अपने पुत्र तेSबलंगा को कभी भी इतना उदास नहीं देखी थी। सुबह को तेSबलंगा की माँ ने पूछा कि उसे क्या हुआ है ?  तेSबलंगा (तेलंगा) ने सुबह में अपनी प्यारी गाय चंपा का दूध भी नहीं दुहा, चंपा के बछड़े जोगिया के साथ खेतों में दौड़ भी नहीं लगाई । तेSबलंगा (तेलंगा) ने अपनी माँ को रतनी के जलप्रपात में डूबने और उसे बचाने की घटना को विस्तार से सुनाई । तेSबलंगा की माँ को समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि तेSबलंगा अब उसका पुत्र शादी के लिए तैयार हो गया है और रतनी को बचाने के दौरान उसे अपना दिल दे बैठा है। तेSबलंगा की माँ ने कहा, बेटा तुम्हारी बीमारी को मैं समझ गयी हॅंू, चिन्ता मत करो, जल्दी ही तुम्हारी इस बीमारी का इलाज कर दिया जायेगा । तेSबलंगा को कुछ भी समझ में नहीं आया कि उसकी माॅं क्या कह रही है? वह बस टुकुर - टुकुर  अपनी माँ को देखता रहा। छह फीट का लंबा , हट्ठा-कट्ठा तेSबलंगा (तेलंगा) अभी बिल्कुल बच्चे की तरह मासूम लग रहा था जिसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह रोज के दिनचर्या से आखिर क्यंू विमुख होता जा रहा है ?

तेSबलंगा (तेलंगा) की माँ उसी दिन रतनी के माता-पिता से मिलने रतनी के घर गयी और अपने पुत्र तेSबलंगा (तेलंगा) से रतनी की शादी की बात बिना लागलपेट के रतनी के माता-पिता के समक्ष रख दिया। तेSबलंगा (तेलंगा) अपने सामाजिक और देशभक्तिपरक कार्यों से क्षेत्र में सबका दुलारा और चहेता बन गया था , इसलिए रतनी के माता-पिता ने एक साथ तेSबलंगा की माँ को कहा , भला उससे कौन लड़की शादी नहीं करना चाहेगी और हमें क्या ऐतराज हो सकता है ? रतनी के पिता गणेश खड़िया ने तेSबलंगा की माँ को साफ शब्दों में कहा कि उसकी बेटी रतनी ने अवश्य कोई पुण्य का कार्य पिछले जन्म में किया होगा जो तेSबलंगा जैसा होनहार युवक की पत्नी बनेगी। तेSबलंगा की माॅं शादी की बात तय कर चली गयी और कुछ ही दिनों में रतनी और तेSबलंगा पति-पत्नी बन गए।

तेSबलंगा (तेलंगा) के सानिध्य में भोली-भाली रतनी अब भोली-भाली नहीं रह गयी थी बल्कि शीघ्र ही अपने पति के अंग्रेजों के प्रति विद्रोही स्वभाव को अपनाने लगी और कंधे से कंधे मिलाकर रतनी अपने पति के साथ खडिया व अन्य समाज को संगठित करने में व्यस्त हो गयी । तेलंगा अपने साथियों को गांव के अखाड़ा में कुश्ती करना, तीर चलाना, गदका और गदा चलाना आदि संचालन का कार्य सीखाता था तो रतनी भी गांव में बच्चों के लिए अखाड़ा चलाती थी, जहां छोटे-छोटे बच्चों को बड़ा होकर तेSबलंगा की तरह बहादुर और निडर बनने की शिक्षा दी जाती थी।

तेSबलंगा (तेलंगा) में गजब की नेतृत्व क्षमता थी और साथ ही तेSबलंगा एक अच्छा पुत्र, एक अच्छा पति, एक अच्छा समाज सेवक और एक अच्छा देश प्रेमी था। तेSबलंगा की गृहस्थी खूशहाल थी और समाज , गाँव और क्षेत्र को खुशहाल बनाने में तेSबलंगा लगा हुआ था जिसमें उसका भरपूर साथ उसकी प्रिय पत्नी रतनी भी देती थी। तेSबलंगा खड़िया ने अंग्रेजी हुकूमत को नकार दिया था। उसने कहा- जमीन हमारी, जंगल हमारे, मेहनत हमारी, फसलें हमारी, तो फिर जमींदार और अंग्रेज कौन होते हैं हमसे लगान और मालगुजारी वसूलने वाले। अंग्रेजों के पास अगर गोली-बारूद हैं, तो हमारे पास भी तीर-धनुष, कुल्हाड़ी, फरसे हैं। बस क्या था, आदिवासियों की तेज हुंकार से आसमान तक कांप उठा।तेSबलंगा ने गुमला के आसपास के गांवों में अपना संगठन बनाया जिसका नाम उसने ‘जूरी पंचायत’ रखा था , जिसकी शाखाएं मुरूनगुर (अब मुरगु) , सिसई , सोसो, नीमटोली, बघिमा, नाथपूर, दुन्दरिया, डोइसा, कुम्हारी , चैनपुर,बेन्दोरा, कोलेबिरा,लचरागढ़ , बानो , महाबुआंग आदि गांवों में बनायी गयी थी। जूरी पञ्चायत एक ऐसा संगठन था, जिसमें विद्रोहियों को तमाम तरह की युद्ध विद्याओं समेत रणनीति बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था। रणनीतिक दस्ता युद्ध की योजनाएं बनाता और लड़ाके जंगलों, घाटियों में छिपकर गुरिल्ला युद्ध करते। प्रतिदिन अखाड़े में युवा युद्ध का अभ्यास करने लगे। हर जुरी पञ्चायत एक दूसरे से रणनीतिक तौर पर जुड़े थे। संवाद और तालमेल बेहद सुलझा हुआ था। जमींदारों के लठैतों और अंग्रेजी सेना के आने के पहले ही उसकी सूचना मिल जाती थी। विद्रोही सेना पहले से ही तैयार रहती और दुश्मनों की जमकर धुनाई करती । तेSबलंगा ने छोटे स्तर पर ही सही, मगर अंग्रेजों के सामानांतर सत्ता का एक स्वदेशी विकल्प खोल दिया था। अपने जुरी पंचायतों की शाखाओं में तेSबलंगा नियमित रूप से परिभ्रमण किया करता था। तेSबलंगा ने अपने अथक प्रयासों से न सिर्फ खडिया समुदाय बल्कि अन्य आदिवासी - गैरआदिवासी समुदायों को भी अंग्रेजों के अत्याचारों से अवगत कराना शुरू कर दिया और उनसे प्रतिशोध लेने के लिए भावनात्मक और शारीरिक तौर पर तैयार कर लिया। गुमला के आस - पास के क्षेत्रों में जूरी पंचायतों की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेजों को चिंता सताने लगी। अधिकतर गांव जमींदारी और अंग्रेजी शोषण से पीडि़त थे। इसलिए विद्रोहियों को ग्रामीणों का भारी समर्थन मिल रहा था। गुरिल्ला युद्ध में दुश्मनों को पछाड़ने के बाद विद्रोही जंगलों में भूमिगत हो जाते।
तेSबलंगा ने संपूर्ण पूर्वी, पश्चिमी एवं दक्षिणी गुमला के क्षेत्रों में इतनी प्रसिद्धी प्राप्त कर ली थी कि अंग्रेज इस कशेत्र में सीधा हस्तक्षेप करने से डरते थे और तेSबलंगा ने आङ्ग्ल शासकों की नई भू - कर नीति को खुल -ए - आम विरोध करते हुए लोगों को भू कर अदा करने से मना कर दिया था । तेSबलंगा जमींदारों और अंग्रेजी शासन के लिए खौफ बन चुका था। इसलिए उसे पकड़ने के लिए इनाम का जाल फेंका गया और अपनी चिर- परिचित आङ्ग्ल - नीति के तहत अंग्रेजों ने ‘फूट डालो अर्थात बाँटो और राज करो’ की नीति को अपनाते हुए मुरूनगुर के बगल के गाँव बरगांव के जंमीदार बोधन सिंह को रूपए का लालच देकर अपनी ओर मिला लिया और तेSबलंगा के पीछे लगा दिया। 21 मार्च सन 1852 ई. को बसिया प्रखंड के कुम्हारी गांव में अपने जूरी पंचायत की बैठक में तेSबलंगा व्यस्त था कि अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने पुलिस को खबर कर दिया और पुलिस ने अचानक  बैठक पर धावा बोलकर तेSबलंगा को गिरफतार कर लिया और  संपूर्ण इलाके में पुलिस दस्तों को खचाखच भर दिया , ताकि तेSबलंगा के अनुयायी इलाके में शांति भंग न कर सकें । गिरफ्तारी के पश्चात लोहरदगा कचहरी में पेश करने के बाद तेSबलंगा को चौदह वर्ष के लिए कलकता जेल भेज दिया गया।

अंग्रेजों की इस कायरता पूर्ण कृत्य का पत्ता जब रतनी को हुआ तो वह आग बबूला हो गयी। अपने करीब छह - सात साल के पुत्र बलंगा को अपने पीठ में बांधकर सभी जूरी पंचायतों का भ्रमण करने लगी और अंदर-अंदर अंग्रेजों से प्रतिशोध लेने के लिए क्षेत्र के विभिन्न समुदायों के लोगों को पूर्ण रूप से जागृत करने के कार्य में लग गई । उधर बोधन सिंह अंग्रेजों को जूरी पंचायतों की सक्रियता की पूरी खबर पहुंचाता रहता था। तेSबलंगा के जेल में रहने के बावजूद उसके जूरी पञ्चायत के संगठनों की लोकप्रियता रतनी के प्रयासों के कारण कम नहीं हो रही थी , बल्कि उल्टे बढ़ रही थी । अपने शासन को स्थिर रखने कके लिए अंग्रेज साम - दाम - दण्ड , भेद सभी प्रकार के नैतिक - अनैतिक नीति अपनाते थे , उन्होंने एक षड़यंत्र के तहत तेSबलंगा को गिरफ़्तारी के चौदह साल बाद जेल से एक दिन स्वतः ही बिना किसी कारर्वाई के छोड़ दिया। दरअसल अंग्रेजों ने एक षड़यंत्र रचा कि तेSबलंगा को जेल से रिहा करके उसे उसके गांव पहुंचने दिया जाए और एक दिन बोधन सिंह से उसकी हत्या करवा दिया जाए। इसी षडयंत्र के तहत तेSबलंगा को कलकता जेल से स्वतः छोड़ दिया गया और जेल से छूटने के बाद तेSबलंगा सीधा अपने  गांव मुरूनगुर पहुंचा और पुनः एक बार शुरू हुआ जूरी पंचायतों की लगातार बेठकें और अंग्रेजों से लोहा लेने की कवायदों का एक अन्तहीन सिलसिला । चौदह साल बाद जब तेSबलंगा के जेल से छूटने के बाद उसके विद्रोही तेवर और भी तल्ख हो गए। विद्रोहियों की दहाड़ से जमींदारों के बंगले कांप उठे। जुरी पञ्चायत पुनः जिन्दा हो उठा और युद्ध -- कौशल प्रशिक्षणों का दौर शुरू हो गया। बसिया से कोलेबिरा तक विद्रोह की लपटें फैल गईं। बच्चे, बूढ़े, महिलाएं, हर कोई उस विद्रोह में भाग ले रहा था। तेSबलंगा जमींदारों और सरकार के लिए एक भूखा बूढ़ा शेर बन चुका था। दुश्मन के पास एक ही रास्ता था- तेSबलंंगा को मार गिराया जाए। परन्तु उधर अपनी देशभक्ति की राह पर चल रहा भोला - भाला तेSबलंगा (तेलंगा )अंग्रेजों के षड्यंत्र को समझ नहीं सका , और वह वैसे भी अंग्रेजों की तरह कायर नहीं था इसलिए अंग्रेजों के विरुद्ध अपनी सांगठनिक कारर्वाई को वह बेधड़क अंजाम देता रहा । क्योंकि वह स्वय देशभक्त था और खुद की तरह सभी को देशभक्त समझता था इसलिए बोधन सिंह उसके विरूद्ध मुखबरी भी कर रहा है तेSबलंगा ऐसा नहीं सोच भी नहीं सकता था ।

अंग्रेजों ने अपने षड़यंत्र को अंजाम देने के लिए बोधन सिंह को अकूत धन-दौलत का लालच देकर तेSबलंगा को अपने रास्ते से हटाने की सूपारी दे दी । ईष्यालु और कायर बोधन सिंह सिसई के अखाड़े में जब तेSबलंगा ने 23 अप्रैल 1880 ई. को सुबह अपने शिष्यों को प्रशिक्षित करने के पूर्व अपने जूरी पञ्चायत के नियत ध्वज के समीप प्रार्थना के लिए जैसे ही अपने झुके हुए सिर को उठाया उसी समय झाड़ियों में छुपे हुए कायर बोधन सिंह ने उन पर गोली चला दी । गोली लगने पर तेSब्लंगा ने देखा कि 23 अप्रैल 1880 की उस सुबह को स्वयं तेSबलंंगा समेत कई प्रमुख स्वाधीनता सेनानियों को अंग्रेजी सेना ने मैदान के कुछ दूर से घेर लिया है । यह देख घायल शेर की भांति तेSबलंंगा गरजा-  है हिम्मत तो सामने आकर लड़ो नपुंसकों । कहते हैं कि तेSबलंगा की उस दहाड़ से समूचा इलाका थर्रा गया था। युद्ध कौशल से प्रशिक्षित स्वाधीनता सेनानियों से सीधी टक्कर लेने की हिम्मत दुश्मन में नहीं थी। इसलिए अंग्रेजों के दलाल बोधन सिंह ने झाडि़यों में छिपकर तेलंगा की पीठ पर गोली चला दी थी । बाद में  तेSब्लंगा मूर्छित हो गिर पड़े , परन्तु  बेहोश तेSबलंगा के पास आने की भी हिम्मत दुश्मनों में नहीं थी। इस अवसर का लाभ उठाकर स्वाधीनता सेनानी तेSबलंगा को लेकर जंगल में गायब हो गए। तेSबलंगा के शव को देखकर रतनी आहत तो जरूर हुयी परंतु उसने आंसू नहीं बहाए। रतनी अपने जवान हो चुके बेटे बलंगा में अपने पति अर्थात उसके पिता की छवि देख रही थी। बलंगा अपने पिता की ही तरह निडर , साहसी हट्ठा-कट्ठा छह फीट का नवजवान बन चुका था, उसने अपने पिता के शिष्यों को पहली बार संबोधित करते हुए कहा कि उसके पिता तेSबलंगा खड़िया की मृत्यु नहीं हुयी है अपितु वे शहीद हुए है और उनकी सहादत व्यर्थ जाया नहीं जाएगी। बलंगा ने प्रण किया कि उसके पिता द्वारा आरम्भ किये गये आंदोलन का नेतृत्व अब वह स्वयं करेगा और चुन-चुन कर अंग्रेजों को मौत की घाट उतारेगा।

रतनी की आंखें भर आयी थी, उसे अम्बाघाघ जलप्रपात में डूबने से बचाने वाले तेSबलंगा की याद आ रही थी, जब तेSबलंगा ने उसे अपनी फौलादी बांहों में उठा लिया था और वह मरने से बच गयी थी। तेSबलंगा का शव यद्यपि गोली लगने के बाद भी बुलंद लग रहा था, बलंगा और तेSबलंगा के शिष्यों ने तेSबलंगा के शव को गुमला के सोसो नीमटोली ले गए और वहीं तेSबलंगा के शव को दफना दिया गया। बलंगा ने अपने पिता के कब्र पर एक स्मारक बनवाया जिसे आज भी "तेSबलंगा तोपा टाँड़" अर्थात  ‘तेलंगा तोपा टांड’ के नाम से याद किया जाता है।तेSबलंगा खडिया लोक गीतों और लोक कथाओं में आज भी जीवित हैं । प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 के पूर्व ही गुमला के आस - पास स्वाधीनता की ज्योति जगाने वाले तेSबलंगा खड़िया अमर हैं । उनके शहीद दिवस पर कोटि - कोटि हार्दिक अभिनंदन ।