बुधवार, 13 नवंबर 2013

झारखण्ड राज्य की स्थापना के 13 महत्वपूर्ण वर्ष और विकास का वास्तविक सच।

झारखण्ड राज्य की स्थापना के 13 महत्वपूर्ण वर्ष और विकास का वास्तविक सच।

    एमपी चुनाव में गठबंधन सरकार की क्या होगी भूमिका ?

झारखण्ड में लोकसभा चुनाव-2014 की तैयारियों में जुटी तमाम छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों द्वारा पिछले कई महीनों से जहाँ एक ओर संगठन की मजबूती के साथ-साथ जनसंपर्क के माध्यम से क्षेत्रों में अपनी पहुँच व पकड़ बनाने की कोशिशंे लगातार जारी है, वहीं दूसरी ओर झारखण्ड बनने के बाद से अब तक राज्य की बागडोर संभालने वाले नेताओं व उनकी पार्टियों द्वारा अपनी-अपनी उपलब्धियाँ अवाम के बीच परोस कर भावी चुनाव में उनका समर्थन व सहयोग अपेक्षित बनाए रखने के प्रयास भी अंतिम मुकाम की ओर अग्रसर हैं। देखा जाय तो झारखण्ड में दो राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों काँग्रेस व भाजपा सहित प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों यथा झामुमों, झाविमों, राजद, जदयू व आजसू पार्टी, के बीच ही राज्य की पूरी राजनीति घुमती है। 15 नवम्बर 2000 को बिहार से अलग हुए इस राज्य के 13 महत्वपूर्ण वर्ष बीत गए। इन 13 वर्षों की कालावधि में एक नये राज्य को राष्ट्रीय स्तर पर जो ख्याति प्राप्त होनी चाहिऐ थी, झारखण्ड उसे प्राप्त कर पाने में अब तक फिसड्डी ही रहा।

इन तेरह वर्षों की अवधि में इस राज्य ने अब तक  9 मुख्यमंत्रियों को देखा। इस राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री के रुप में बाबूलाल मराण्डी ने कुल 28 महीनों (15 नवम्बर 2000 से 17 मार्च 2003) तक शासन की बागडोर संभाली। अपने 28 महीनों के कार्यकाल में बाबू लाल मराण्डी ने राज्य के विकास के अनगिनत सपने तो देखे जरुर, किन्तु उन्हीं के शासन काल में इस राज्य के नागरिकों ने आदिवासी-मूलवासी, डोमिसाईल, आरक्षण, भीतरी-बाहरी, आदिवासी-गैर आदिवासी का फलसफा भी देखा। ’’वर्ष 1932 के सर्वे में जिनका नाम दर्ज होगा वही इस राज्य के स्थायी निवासी होगें’’, का स्लोगन इस कदर लोगों पर हावी होता गया कि अंततः ऐसा प्रतीत होने लगा मानो यह राज्य आन्तरिक कलह व वर्ग संघर्ष का शिकार होकर अपना अस्तित्व ही खो बेठेगा। दो अलग-अलग वर्गों के बीच आपसी मनमुटाव की खाई बढ़ती चली गयी। कई अलग-अलग स्थानों पर समय-असमय खूनी झड़पें भी हुईं। कई लोग काल के गाल में समा गए।

किसी का भाई मौत के मुँह में समा गया तो किसी के पिता। किसी की पत्नी विधवा हो गई तो किसी माँ की कोख ही उजड़ गई। कहीं बड़ी-बड़ी दूकानें आग की भेंट चढ़ गई तो कहीं अबलाओं की इज्ज्त-आबरु नीलाम हुई। यह दिगर बात है कि इन्हीं मुद्दों पर बाबू लाल मराण्डी की जो सरकार गिरी, दूसरी मर्तबा आज तक वे मुख्यमंत्री बनने से महरुम ही रहे। श्री मराण्डी के बाद तीन अलग-अलग कालावधि ( 02 मार्च 2005 से 12 मार्च 2005 तक, 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 तक तथा 30 दिसम्बर 2009 से 31 मई 2010 तक ) में इस राज्य की बागडोर वतौर मुख्यमंत्री संभालने वाले आदिवासियों के मसीहा व झारखण्ड के कद्दावर नेता दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने भी इस राज्य को वैसा सम्मान नहीं बख्शा जिसका स्वप्न इस राज्य के नागरिकों ने देखा था। जल-जंगल-जमीन व आदिवासियों के हक-हकुक की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने का ढि़ढोरा पिटने वाले शिबू सोरेन का वक्त पुरानी राग अलापने में ही खर्च हो गया। जिन आदिवासियों के उत्थान की बातें तकरीबन 30-35 वर्षों तक की उन्हें राज्य तो प्राप्त हो गया किन्तु चैन की जिन्दगी से वे भी बैचेन ही रहे। बाबू लाल मराण्डी के कार्यकाल में वेलफेयर मिनिस्टर रहे भाजपा के अर्जुन मुण्डा ने भी मुख्यमंत्री के रुप में तीन अलग-अलग कार्यखंडों ( 18 मार्च 2003 से 02 मार्च 2005 तक, 12 मार्च 2005 से 14 सितम्बर 2006 तक तथा 11 सितम्बर 2010 से 18 जनवरी 2013 तक ) में इस राज्य के वाशिंदों को लाॅलीपाॅप ही दिखलाने का काम किया। कहा तो यह जाता है कि अर्जुन मुण्डा ने अपने कार्यकाल में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ जंबो एमओयू कर राज्य के लिये विकास खोला था किन्तु उनपर यह भी आरोप लगते रहे कि विकास की बातें कर अवाम से उन्होनें धोखाधड़ी की और मोटी रकम की वसूली कर उन्होनें अपना जेब मोटा किया।

ऐसी बातें नहंी कि इस राज्य ने विकास के सोपान तय नहीं किये। आधारभूत संरचनाओं से लेकर एक राज्य के चतुर्दिक विकास की जो कल्पनाएँ की जाती है वह भी धरातल पर उतारा गया फिर ऐसी क्या बाध्यता इन 13 वर्षों तक रही कि बिहार से अलग होने के बाद भी इस राज्य की विकास यात्रा धरी की धरी रह गई। यह दिगर बात है कि एशियन डवलपमेंट बैंक के तत्वावधान में गोविन्दपुर से साहेबगंज तक तकरीबन 310 किमी तक सड़क निर्माण का कार्य किया जा रहा है। विकास के लिये सड़क के साथ-साथ बड़े-बड़े कल-कारखानों की स्थापना, बेरोजगार युवाओं के लिये रोजगार की पर्याप्त व्यवस्था, स्कूल, काॅलेजेज, इंजीनियरिंग, मेडिकल काॅलेजों की स्थापना, पलायन व विस्थापन की समस्या से अवाम को राहत प्रदान करना, व्यवसायिक काॅलेजों की स्थापना, शिक्षण संस्थानों से विद्यार्थियों को जोड़ना, अनाज से लेकर फल-फूल, शब्जी, व अन्य सामग्रियों का उत्पादन विकास की प्रक्रिया के महत्वूर्ण अवयव हैं। जब से झारखण्ड अलग राज्य बना इस राज्य के सूबे संतालपरगना के मुख्यालय दुमका में हाईकोर्ट के बैंच की स्थापना के साथ-साथ मेडिकल व इंजीनियरिंग काॅलेजों तथा बड़े-बड़े उद्योग-धंधों की स्थापना की माँगें तमाम सत्तासीन सरकार के समक्ष उठाया जाता रहा किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात वाली रही। ट्राईवल एडवायजरी कमिटी के माध्यम से आदिवासियों व आदिम जनजाति पहाडि़या समुदाय के लोगों के लिये विशेष पैकेज की बातें तो होती रही किन्तु आदिम जनजाति पहाडि़या समुदाय अभी भी खुद को उपेक्षित ही महसूस कर रहा है। संताल परगना प्रमण्डल को पहाडि़या लैण्ड बनाने की माँग लगातार उनके माध्यम से सरकार तक पहुँचती रही।

इस राज्य के लिये सबसे बड़ा संक्रमण का दौर मधुकोड़ा के मुख्यमंत्रित्व काल में रहा। 14 सितम्बर 2006 से 23 अगस्त 2008 तक एक बड़ी राजनीतिक पार्टी की छत्रछाया में झारखण्ड की बागडोर संभालने वाले मधुकोड़ा ने राज्य की विकास यात्रा ही अवरुद्ध कर डाली। 4 हजार करोड़ के घोटाले में फँसे मधुकोड़ा को अपनी नीतियों की वजह से जेल की यात्रा भी करनी पड़ी जो पूरे भारतवर्ष के लिये शर्मसार कर देने वाली घटना थी। राज्य में कई बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ एमओयू व बिना किसी विचारण के उनके द्वारा उठाऐ गए विकास के अन्य कदमों ने राज्य को अर्स से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया। किसी भी राज्य के सर्वांगिण विकास में एक स्थायी सरकार की भूमिका काफी अहम होती है। पार्टी चाहे राष्ट्रीय हो अथवा क्षेत्रीय। जबतक 5 वर्षों की अवधि तक कोई पार्टी शासन की बागडोर नहीं संभालेगी राज्य का विकास नहीं दिखेगा, किन्तु झारखण्ड में ऐसी बातें नहीं रही। इस राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार 5 वर्षों तक के लिये स्थायी नहंी रही। परिणाम यह रहा कि जिन्हें भी राज्य की बागडोर संभालने का मौका प्राप्त हुआ राज्य के विकास की बात तो दूर निजी स्वार्थ ही उनपर हावी रहा। नेता अपने पाॅकेट भरने में ही लगे रहे। ऐसी स्थिति में तीन मर्तबा इस राज्य को राष्ट्रपति शासन से भी रुबरु होना पड़ा। 19 जनवरी 2009 से 29 दिसम्बर 2009 तक (कुल 344 दिन), 01 जून 2010 से 11 सितम्बर 2010 तक (102 दिन) तथा 18 जनवरी 2013 से 12 जूलाई 2013 तक (175 दिन) तक इस राज्य की बागडोर राज्यपाल के हाथों में रही। राज्य की अवाम के एक बड़े वर्ग का सोंचना है-विकास की सबसे बड़ी बाधा सीएनटी व एसपीटी एक्ट है। उपरोक्त एक्ट के मुताबिक जमीन का हस्तांतरण गैरकानूनी है।

जबतक जमीन का हस्तांतरण नहीं होगा पूँजीपति इस राज्य में निवेश से डरेगें। बड़ी योजनाएँ लागू नहंीं होगीं। उद्योग-धंधों की स्थापना नहीं होने से रोजगार के अवसर लोगों को प्राप्त नहंी होगें। रोजगार का सृजन नहीं होगा तो आर्थिक स्थिति सुद्ढ़ नहीं होगी। पलायन व विस्थापन की समस्या राज्य में बदस्तूर जारी है। छोटे-छोटे काम के लिये दूसरे राज्यों की ओर लोगों का पलायन आम बात हो गई है। झारखण्ड प्रदेश जदयू विधायक दल के नेता, प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व मंत्री गोपाल सिंह पातर उर्फ राजा पीटर ने पिछले दिनों संताल परगना प्रमण्डल के भ्रमण के दौरान उप राजधानी दुमका में कहा था राज्य के विकास में जो बाधक का काम कर रहा हो उसमें संशोधन की आवश्यकता है। उन्होनें यह भी कहा था वर्ष 1932 का खतियान आजादी से वर्षों पूर्व अंग्रेजों ने अपनी शासन व्यवस्था को मद्देनजर समय व परिस्थितिवश बनाया था। आजादी के 65 वर्षों बाद भी उन्हीं अंग्रेजों की व्यवस्थाओं पर अपनी-अपनी जिन्दगी ढोने की मानसिकता बनाऐ लोग बैठे हैं तो फिर राज्य के विकास की कल्पना ही क्यों की जा रही ? उन्होनें कहा परिवर्तन समय की माँग है और समय के अनुसार खुद को ढालने की मंशा भी होनी चाहिए।   अन्य प्रदेशों में जानेवाले लोग जीवन की बैलगाड़ी तो किसी तरह खींच लेते है किन्तु उन्हें वैसी स्वतंत्रता हासिल नहीं होती जिसकी चाह वे रखते हैं। विस्थापन व पुर्नवास पर कोई ठोस नीति अब तक स्पष्ट नहीं की गई है। जहाँ कहीं भी बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा अपने हितार्थ जमीन प्राप्त की जाती है उन इलाकों के रैयतों को वे वैसा लाभ प्रदान नहीं करते जो जायज है। राज्य की स्थापना का 13 वाँ वर्ष सूबे की राजनीति के लिये कई मायनों में अहम है। वर्तमान झामुमों-काॅग्रेस-राजद गठबंधन की सरकार के 100 दिन पूरे हो गए। जब 13 वर्षों में इस राज्य का विकास नहीं हो सका तो फिर मात्र 100 दिनों के भीतर गठबंधन की सरकार क्या एचिवमंेट प्राप्त कर लेगी यह तो सर्वविदित है किन्तु वर्तमान युवा मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन का यह कहना कि समय कम और चुनौतियाँ अधिक है, विकास की रफतार जो भी हो, पूरे तन-मन से आगे बढ़ते रहना है सांेच तो ठीक है किन्तु क्या यह वर्ष 2014 के एम0पी0 चुनाव के पूर्व राज्य की अवाम के लिये एक अस्थायी आश्वासन नहीं है ? क्या आने वाला समय झामुमों व काँग्रेस के बीच प्रत्याशी खड़े करने के मुद्दे पर आपसी खींचतान का समय नहंी रहेगा ? क्या भाजपा का नमो फार्मूला इस राज्य के भविष्य में हलचल पैदा नहीं करेगा ?