गुरुवार, 12 सितंबर 2013

सत्यमेव जयते अथवा सत्यमेव जयति

सत्यमेव जयते अथवा सत्यमेव जयति?

हमारे देश भारतवर्ष की संघीय व्यवस्था में अशोक की लाट शासन के प्रतीक के तौर
पर स्वीकारा गया है और उसके साथ अंकित रहता है प्रेरक वाक्य ‘सत्यमेव
जयते’ । ‘संस्कृत सूक्ति रत्नाकर’ नाम की पुस्तक में सत्यमेव जयते शब्द
अंकित है और वहां इसका संदर्भ दिया है मुण्डकोपनिषद् । किंतु वहां ‘जयते’
के स्थान पर ‘जयति’ है । विविध संस्कृत शब्दकोश के अनुसार एवं व्याकरण
की दृष्टि से ‘जयते’ गलत है और उसके स्थान पर होना चाहिए ‘जयति’ ।
उल्लेखनीय है कि ‘जयति’ भ्वादिगण के परस्मैपदी धातु ‘जि’ से प्राप्त
क्रियापद है । हां, ‘परा’ तथा ‘वि’ उपसर्गों के साथ ‘जि’ धातु
आत्मनेपदी रहता है और तदनुसार ‘पराजयते’ एवं ‘विजयते’ सही हैं, किंतु
‘जयते’ नहीं । उक्त प्रेरक वाक्य में यह त्रुटि कैसे आयी और
किसी संस्कृतज्ञ ने शासन का ध्यान आरंभ में उस ओर
क्यों नहीं खींचा यह जानना रोचक होगा ।
सत्यमेव जयति नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
येनाक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ।।
(मुण्डकोपनिषद् 3/1/6)
शब्दार्थ के अनुसार यह वचन कहता है कि सत्य की ही जय अंत में होती है,
न कि असत्य की । यही सत्य उस देवयान नामक मार्ग पर छाया है जिसके
माध्यम से ऋषिगण, जिनकी कामनाएं पूर्ण हो चुकी हों, सत्य के परम धाम
परमात्मा तक पहुंचते हैं ।
वैदिक चिंतन में जीवात्मा का अंतिम लक्ष्य मोक्षप्राप्ति है और
मानवयोनि उसके लिये विवेकमय एक अवसर प्रदान करती है । इस योनि के
द्वारा ही वह देवत्व या सच्चिदानंद की आध्यात्मिक अवस्था तक पहुंच
सकता है । मेरे मत में इस वचन की सार्थकता शुद्ध रूप से आध्यात्मिक है ।
सत्य ही उस अंतिम लक्ष्य तक ले जाता है, न कि असत्य
जो उसको जन्ममरण के अनवरत चल रहे चक्र में बांधे रहता है ।
लेकिन मैंने देखा है कि व्याख्याकार उक्त वाक्य की अर्थवत्ता रोजमर्रा के
जीवन में भी समान रूप से दर्शाते हैं । मैं नहीं मानता कि इस संसार में सत्य
सदैव विजयी रहता है । अनुभव बताता है कि सत्य तथा असत्य के बीच
संघर्ष निरंतर चलता रहता है । कभी सत्य सफल होता है तो कभी असत्य
उसके ऊपर हावी हो जाता है । यदि सत्य असत्य के ऊपर
विजयी हो ही चुका हो तो बारंबार असत्य के साथ लड़ने
की स्थिति क्यों बनती ? मैं यही मानता हूं कि एहिक लोक में दोनों अस्तित्व
में रहते हैं । दोनों का अस्तित्व एक-दूसरे के सापेक्ष रहता है । असत्य
का अस्तित्व सदैव रहता है और वह मनुष्य को पूरी ताकत से अपने पक्ष में
किये रहता है । सत्य मनुष्य को उससे मुक्त करने को संघर्षरत रहता है ।
कभी वह सफल होता है तो कभी असफल । मैं यही मानता हूं
कि ऋषियों द्वारा ‘सत्यमेव जयति’ विशुद्ध आध्यात्मिक संदर्भ में
ही कहा गया होगा, न कि भौतिक संसार के संदर्भ में ।

महाभारत में वृक्षरोपण एवं जलाशय निर्माण

महाभारत में वृक्षरोपण एवं जलाशय निर्माण

महर्षि व्यासविरचित महाकाव्य महाभारत में एक प्रकरण है, जिसमें भीष्म
पितामह महाराज युधिष्ठिर को प्रजा के हित में शासन चलाने के बारे में
उपदेश देते हैं । यह प्रकरण कौरव-पांडव समाप्ति के बाद युधिष्ठिर
द्वारा राजकाज संभालने के समय का है । इसी के अंतर्गत एक स्थल पर
मृत्युशय्या पर आसीन भीष्म जलाशयों के निर्माण एवं वृक्षरोपण
की आवश्यकता स्पष्ट करते हैं । ये बातें महाकाव्य के अनुशासन पर्व के
अठावनवें अध्याय में वर्णित हैं । ३३ श्लोकों के उक्त अध्याय में बहुत-
सी बातें कही गई हैं ।
अतीतानागते चोभे पितृवंशं च भारत ।
तारयेद् वृक्षरोपी च तस्मात् वृक्षांश्च रोपयेत् ॥
(महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय ५८, श्लोक २६)
(भारत! वृक्ष-रोपी अतीत-अनागते च उभे पितृ-वंशं च तारयेद्, तस्मात् च
वृक्षान् च रोपयेत् ।)
अर्थ - हे युधिष्ठिर! वृक्षों का रोपण करने वाला मनुष्य अतीत में जन्मे
पूर्वजों, भविष्य में जन्मने वाली संतानों एवं अपने पितृवंश का तारण करता है
। इसलिए उसे चाहिए कि पेड़-पौंधे लगाये ।
तस्य पुत्रा भवन्त्येते पादपा नात्र संशयः ।
परलोगतः स्वर्गं लोकांश्चाप्नोति सोऽव्ययान् ॥
(पूर्वोक्त, श्लोक २७)
(एते पादपाः तस्य पुत्राः भवन्ति अत्र संशयः न; परलोक-गतः सः स्वर्गं
अव्ययान् लोकान् च आप्नोति ।)
अर्थ - मनुष्य द्वारा लगाए गये वृक्ष वास्तव में उसके पुत्र होते हैं इस बात
में कोई शंका नहीं है । जब उस व्यक्ति का देहावसान होता है तो उसे स्वर्ग
एवं अन्य अक्षय लोक प्राप्त होते हैं ।
आर्य सनातन वैदिक धर्मावलम्बी हिंदू पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं ।
प्रायः सभी मानते हैं कि आत्मा अमर होती है और उसके जन्म का अर्थ है
भौतिक शरीर धारण करना और मृत्यु उस देह का त्यागा जाना । मृत्यु
पश्चात् वह इस मर्त्यलोक से अन्य लोकों में विचरण करती है जो उसके
कर्मों पर निर्भर करता है और जहां उसे सुख अथवा दुःख भोगने होते हैं ।
मान्यता यह भी है कि देहमुक्त आत्मा का तारण या कष्टों से मुक्ति में पुत्र
का योगदान रहता है । संस्कृत में पुत्र शब्द की व्युत्पत्ति इसी रूप में
की गयी है । (पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात्त्रायते पितरं सुतः । तस्मात्पुत्र
इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयम्भुवा ॥ अर्थात् ‘पुं’ नाम के नरक से जिस
कारण सुत पिता का त्रारण करता है उसी कारण से वह पुत्र कहलाता है
ऐसा स्वयंभू ब्रह्मा द्वारा कहा गया है । – मनुस्मृति, अध्याय 9, श्लोक
138 ।) विद्वानों का मानना है कि पुत्र शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त
किया गया है, अर्थात् यह पुत्र एवं पुत्री दोनों को व्यक्त करता है, कारण
कि पुत्री – स्त्रीलिंग – की व्युत्पत्ति भी वस्तुतः वही है । कई शब्द
पुल्लिंग में इस्तेमाल होते हैं, किंतु उनसे पुरुष
या स्त्री दोनों की अभिव्यक्ति होती है, जैसे मानव या मनुष्य अकेले मर्द
को ही नहीं दर्शाता बल्कि मर्द-औरत सभी उसमें शामिल रहते हैं ।
आदमी या इंसान स्त्री-पुरुष सभी के लिए प्रयोग में लिया जाता है । मैं
समझता हूं कि प्राचीन काल में पुत्र सभी संतानों के लिए चयनित शब्द
रहा होगा। कालांतर में वह रूढ़ अर्थ में प्रयुक्त होने लगा होगा।
उपर्युक्त श्लोकों के भावार्थ यह लिए जा सकते हैं
कि वृक्षों का लगाना संतानोत्पत्ति के समान है । वे मनुष्य की संतान के
समान हैं, इसलिए वे मनुष्य के पूर्वजों/वंशजों के उद्धार करने में समर्थ होते
हैं । वृक्ष की तुलना संतान से की गयी है।

पुरातन भारतीय ग्रंथों में प्राणी विज्ञान

पुरातन भारतीय ग्रंथों में प्राणी विज्ञान

भारतीय परम्परा के अनुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ
है। इसकी अभिव्यक्ति अनेक ग्रंथों में अंकित मिलती है। श्रीमद्भागवत पुराण में यह वर्णन अंकित है-
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ ११-९-२८
विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई। इस क्रम में वृक्ष,
सरीसृप, पशु, पक्षी, कीड़े, मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ।
परन्तु उससे उस चेतना को पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई, अत: मनुष्य
का निर्माण हुआ जो उस मूल तत्व का साक्षात्कार कर सकता था।
प्राणियों का प्राचीन भारतीय वर्गीकरण
दूसरी बात, भारतीय परम्परा में जीवन के प्रारंभ से मानव तक की यात्रा में
८४ लाख योनियों (द्मद्रड्ढड़त्ड्ढद्म) के बारे में कहा गया। आधुनिक
विज्ञान भी मानता है कि अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में चेतना १
करोड़ ४४ लाख योनियों से गुजरी है। आज से हजारों वर्ष पूर्व हमारे
पूर्वजों ने यह साक्षात्कार किया, यह आश्चर्यजनक है। अनेक आचार्यों ने
इन ८४ लाख योनियों का वर्गीकरण किया है।
समस्त प्राणियों को दो भागों में बांटा गया है, योनिज तथा आयोनिज। दो के
संयोग से उत्पन्न या अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होने वाले।
इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को तीन भागों में बांटा गया:-
जलचर - जल में रहने वाले सभी प्राणी।
थलचर - पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।
नभचर - आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।
इसके अतिरिक्त प्राणियों की उत्पत्ति के आधार पर ८४ लाख
योनियों को चार प्रकार में वर्गीकृत किया गया।
जरायुज - माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।
अण्डज - अण्डों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाये।
स्वदेज- मल, मूत्र, पसीना आदि से उत्पन्न क्षुद्र जन्तु स्वेदज कहलाते
हैं।
उदि्भज- पृथ्वी से उत्पन्न प्राणियों को उदि्भज वर्ग में शामिल
किया गया।
बृहत् विष्णु पुराण में संख्या के आधार पर विविध योनियों का वर्गीकरण
किया गया।
स्थावर - २० लाख प्रकार
जलज - ९ लाख प्रकार
कूर्म- भूमि व जल दोनों जगह गति ऐ ९ लाख प्रकार
पक्षी- १० लाख प्रकार
पशु- ३० लाख प्रकार
वानर - ४ लाख प्रकार
शेष मानव योनि में।
इसमें एक-एक योनि का भी विस्तार से विचार हुआ। पशुओं को साधारणत:
दो भागों में बांटा (१) पालतू (२) जंगली।
इसी प्रकार शरीर रचना के आधार पर भी वर्गीकरण हुआ।
इसका उल्लेख विभिन्न आचार्यों के वर्गीकरण के सहारे ‘प्राचीन भारत में
विज्ञान और शिल्प‘ ग्रंथ में किया गया है। इसके अनुसार (१) एक शफ
(एक खुर वाले पशु) - खर (गधा), अश्व (घोड़ा), अश्वतर (खच्चर), गौर
(एक प्रकार की भैंस), हिरण इत्यादि।
(२) द्विशफ (दो खुल वाले पशु)- गाय, बकरी, भैंस, कृष्ण मृग आदि।
(३) पंच अंगुल (पांच अंगुली) नखों (पंजों) वाले पशु- सिंह, व्याघ्र, गज,
भालू, श्वान (कुत्ता), श्रृगाल आदि। (प्राचीन भारत में विज्ञान और
शिल्प-पृ. सं. १०७-११०)
डा. विद्याधर शर्मा ‘गुलेरी‘ अपने ग्रंथ ‘संस्कृत में विज्ञान‘ में चरक
द्वारा किए गए प्राणियों के वर्गीकरण के बारे में बताते हैं।
चरक का वर्गीकरण
चरक ने भी प्राणियों को उनके जन्म के अनुसार जरायुज, अण्डज, स्वेदज
और उदि्भज वर्गों में विभाजित किया है (चरक संहिता, सूत्रस्थान,
२७/३५-५४) उन्होंने प्राणियों के आहार-विहार के आधार पर भी निम्न
प्रकार से वर्गीकरण किया है-
१. प्रसह- जो बलात् छीनकर खाते हैं। इस वर्ग में गौ, गदहा, खच्चर, ऊंट,
घोड़ा, चीता, सिंह, रीछ, वानर, भेड़िया, व्याघ्र, पर्वतों के पास रहने वाले
बहुत बालों वाले कुत्ते, बभ्रु, मार्जार, कुत्ता, चूहा, लोमड़ी, गीदड़, बाघ,
बाज, कौवा, शशघ्री (ऐसे पक्षी जो शशक को भी अपने पंजों में पकड़ कर
उठा ले जाते हैं) चील, भास, गिद्ध, उल्लू, सामान्य घरेलू चिड़िया (गौरेया),
कुरर (वह पक्षी जो जल स्थित मछली को अपने नख से भेद कर उड़ा ले
जाता है।)
भूमिशय-बिलों में रहने वाले जन्तु-सर्प (श्वेत-श्यामवर्ण का) चित्रपृष्ठ
(जिसकी पृष्ठ चित्रित होती है), काकुली मृग-एक विशेष प्रकार का सर्प-
मालुयासर्प, मण्डूक (मेंढक) गोह, सेह, गण्डक, कदली (व्याघ्र के आकार
की बड़ी बिल्ली), नकुल (नेवला), श्वावित् (सेह का भेद), चूहा आदि।
अनूपदेश के पशु-अर्थात् जल प्रधान देश में रहने वाले प्राणी। इन में सूकर
(महा शूकर), चमर (जिनकी पूंछ चंवर बनाने के काम आती है), गैण्डा, महिष
(जंगली भैंसा), नीलगाय, हाथी, हिरण , वराह (सुअर) बारहसिंगा- बहुत
सिंगों वाले हिरण सम्मिलित हैं।
वारिशय-जल में रहने वाले जन्तु-कछुआ, केकड़ा, मछली, शिशुमार
(घड़ियाल, नक्र की एक जाति) पक्षी। हंस, तिमिंगिल, शुक्ति (सीप
का कीड़ा), शंख, ऊदबिलाव, कुम्भीर (घड़ियाल), मकर (मगरमच्छ) आदि।
वारिचारी-जल में संचार करने वाले पक्षी - हंस क्रौञ्च, बलाका, बगुला,
कारण्डव (एक प्रकार का हंस), प्लव, शरारी, केशरी, मानतुण्डका,
मृणालण्ठ, मद्गु (जलकाक), कादम्ब (कलहंस), काकतुण्डका (श्वेत
कारण्डव-हंस की जाति) उत्क्रोश (कुरर पक्षी की जाति) पुण्डरीकाक्ष,
चातक, जलमुर्गा, नन्दी मुखी, समुख, सहचारी, रोहिणी, सारस,
चकवा आदि।
जांगल पशु- स्थल पर उत्पन्न होने वाले तथा जंगल में संचार करने वाले
पशु- चीतल, हिरण, शरभ (ऊंट के सदृश बड़ा और आठ पैर वाला, जिसमें
चार पैर पीठ पर होते हैं-ऐसा मृग), चारुष्क (हरिण की जाति) लाल वर्ण
का हरिण, एण (काला हिरण) शम्बर (हिरण भेद) वरपोत (मृग भेद), ऋष्य
आदि जंगली मृग।
विष्किर पक्षी-जो अपनी चोंच और पैरों से इधर-उधर बिखेर कर खाते हैं, वे
विष्किर पक्षी हैं। इनमें लावा (बटेर), तीतर, श्वेत तीतर, चकोर, उपचक्र
(चकोर का एक भेद), लाल वर्ग का कुक्कुभ (कुको), वर्तक, वर्तिका, मोर,
मुर्गा, कंक, गिरिवर्तक, गोनर्द, क्रनर और बारट आदि।
प्रतुद पक्षी-जो चोंच या पंजों से बार-बार चोट लगाकर आहार को खाते हैं।
कठफोड़ा भृंगराज (कृष्णवर्ण का पक्षी विशेष), जीवंजीवक, (विष को देखने
से ही इस पक्षी की मृत्यु हो जाती है), कोकिल, कैरात (कोकिक का भेद),
गोपपुत्र- प्रियात्मज, लट्वा, बभ्रु, वटहा, डिण्डिमानक, जटायु, लौहपृष्ठ,
बया, कपोत (घुग्घु), तोता, सारंग (चातक), शिरटी, शरिका (मैना) कलविंक
(गृहचटक अथवा लाल सिर और काली गर्दन वाली गृहचटक सदृश चिड़ियां),
चटक, बुलबुल, कबूतर आदि।
उपर्युक्त वर्गीकरण के साथ चरक ने इन प्राणियों की मांस और उसके
उपयोग के साथ ही बात, पित्त और कफ पर उसके प्रभाव की भी विस्तृत
विवेचना प्रस्तुत की है। चकोर, मुर्गी, मोर, बया और चिड़ियों के
अंडों की भी आहार के रूप में चर्चा की गई है।
ऐसे ही सुश्रुत की सुश्रुत संहिता, पाणिनि के अष्टाध्यायी, पतञ्जलि के
महाभाष्य, अमर सिंह के अमरकोष, दर्शन के प्रशस्तपादभाष्य
आदि ग्रंथों में प्राणियों के वर्गीकरण के विस्तृत विवरण मिलते हैं। (प्राचीन
भारत में विज्ञान और शिल्प-पृ.सं.११५-११७)
पशु-चिकित्सा
पुराणों के अन्य विषयों के साथ-साथ पशु-चिकित्सा के विषय में भी उल्लेख
मिलते हैं। अश्वों की चिकित्सा के लिए आयुर्वेद का एक अलग विभाग था।
इसका ‘शालिहोत्र‘ नाम रखा गया। अश्वों के सामान्य परिचय, उनके चलने
के प्रकार, उनके रोग और उपचार आदि विषय पुराणों में वर्णित हैं।
अग्निपुराण में अश्वचालन और अश्वचिकित्सा का विस्तृत विवरण है।
गजचिकित्सा के साथ ही गजशान्ति के उपाय भी बताये गए हैं। गरुड़पुराण में
भी पालकाप्य ऋषि के हस्तिविद्या विषयक ग्रन्थ का उल्लेख है।
अग्निपुराण में गायों की चिकित्सा का विस्तृत विवरण है।
शालिहोत्र संहिता में अश्वचिकित्सा
मानव चिकित्सा क्षेत्र में चरक संहिता और
सुश्रुतसंहिता जितनी महत्वपूर्ण हैं, अश्वचिकित्सा क्षेत्र में शालिहोत्र
संहिता उतनी ही महत्वपूर्ण है। शालिहोत्र का काल ई।पू. लगभग ८०० वर्ष
आंका जा सकता है। उनकी संहिता ‘हय आयुर्वेद‘ एवं ‘तुरगशास्त्र‘ के नाम
से भी प्रसिद्ध रही है। मूल ग्रन्थ में १२,००० श्लोकों का समावेश है। यह
आठ भागों में विभक्त था। इस ग्रन्थ के कुछ ही भाग अब उपलब्ध हैं। इसमें
अश्वों के लक्षण, उनके सभी रोग और उनके निदान, चिकित्सा,
औषधियों और उनके स्वास्थ्य रक्षण के विचार विस्तार से बताए गए हैं। इस
संहिता का अनुवाद अरबी, फारसी, तिब्बती एवं अंग्रेजी भाषाओं में
किया गया है। पशुचिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार यह अश्व चिकित्सा के
आधुनिक ग्रन्थ से भी उत्कृष्ट ग्रन्थ है ।

चीन का भारतवर्ष की संप्रभुता पर हमला

चीन का भारतवर्ष की संप्रभुता पर हमला

हमारे पडोसी देश चीन के द्वारा बार-बार भारतवर्ष की संप्रभुता पर
हमला किया जा रहा है और देश की सीमा के अन्दर घुसकर सैन्य
गतिविधियाँ चलाई जा रही हैं , देश की सेना को गश्ती बंद करने
की चेतावनी दी जा रही है परन्तु खेद की बात है कि हमारा नेतृत्व मुंह में गुंह
(मल्ल) तुब (भर) चुपचाप अपनी नपुंसकता प्रदर्शित कर रहा है। भारत के
विदेश मंत्री की मानें तो यह घुसपैठ केवल ‘छोटी-मोटी’ घटना है, और
इसकी वजह से चीन के साथ हमारी मित्रता को खतरे मे
नहीं डाला जाना चाहिए।
कहीं हम इतिहास की भयंकर भूलों को फिर से दोहराने तो नहीं जा रहे? सन
1962 की कड़वी यादों की कड़वी कड़ियाँ फिर से जुड़ती सी नज़र आ रही हैं।
सावधान!
एक सैन्य विशेषज्ञ के अनुसार यदि भारत सरकार का रवैया इसी तरह
ढुलमुल और निस्तेज रहा तो जल्द ही भारतीय लद्दाख क्षेत्र भी तिब्बत में
तब्दील हो जाएगा, जिसे चीन अंतराष्ट्रीय स्तर पर अपना घोषित कर भारत
को ही अतिक्रमणकारी साबित कर डालेगा।
एक महान क्रांतिदृष्टा की कुछ इसी तरह की चेतावनी को नज़रअंदाज़ करने
का दुष्परिणाम हम पहले ही 1962 के युद्ध मे भुगत चुके हैं। सन 1954 में
स्वातंत्र्य वीर सावरकर ने चेतावनी देते हुए कहा था- “चीन किसी भी पल
पंचशील सिद्धांत के पाये खींचकर उसे धराशायी कर देगा। जिन 6
वर्षों की आपराधिक बरबादी (1947 के पश्चात) भारत ने की है, उन 6
वर्षों मे चीन ने स्वयं को आधुनिकतम हथियारों से सुसज्जित कर लिया है
और भारत की भावनाओं की परवाह न करते हुए एकमात्र “बफर स्टेट’
तिब्बत पर कब्जा कर लिया है।”
किन्तु उस समय हतभाग्य भारत के तत्कालीन नीतिनियंता शांति नोबल के
ख्वाबों मे कुछ इस कदर डूबे हुए थे कि वीर सावरकर की इस पूर्व-
चेतावनी के बावजूद उन्हे चीनी ड्रैगन का भयावह खतरा नज़र
नहीं आया और इस ख्वाब ने भारत को 1962 की शर्मनाक पराजय की गर्त
मे धकेल दिया। भारत की संप्रभुता पर लगा वह घाव आजतक रिस रहा है।
भारत के सत्ताधीशों ने हमेशा से
ही राष्ट्रवादी आवाज़ों को अनसुना किया है और आज
भी वही गलती दोहराए जा रहे हैं। गलती... चुप रहने की। इस
गलती की सज़ा कहीं हमे अपनी धरती का हिस्सा खोकर न चुकानी पड़े।
कम्यूनिस्ट चीन के धूर्तता भरे इतिहास पर दृष्टिपात करें तो इस
संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता।
पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना की स्थापना 1949 में हुई और भारत
पहला ग़ैर कम्युनिस्ट राष्ट्र था, जिसने इसे मान्यता दी। जून 1954 में चीन
के प्रधानमंत्री चाउ इनलाई भारत आए तथा भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर
लाल नेहरू ने भी अक्टूबर 1954 में चीन की यात्रा की। इसी वर्ष
दोनों देशों के मध्य पंचशील समझौता हुआ लेकिन भारत की इस बेवजह
भलमनसाहत का परिणाम क्या निकला? 20 अक्तूबर 1962
को चीनी सेना “हिन्दी चीनी भाई भाई” के नारे को उद्ध्वस्त करती हुई
भारत मे घुस आई। इस आक्रमण ने सावरकर जी की चेतावनी को सच साबित
कर दिया। 1383 सैनिकों की शहादत के उपरांत भी देश को आत्मसम्मान
गँवाना पड़ा। इस युद्ध मे 1,383 शहीदों के अतिरिक्त 1,047 भारतीय सैनिक
घायल हुए, 1,696 सैनिक लापता थे तथा 3,968 सैनिकों को चीन
द्वारा बंधक बनाया गया। भारत के मान-मस्तक मानसरोवर पर चीन ने
कब्जा कर लिया, फिर भी भारत चुपचाप बैठकर चीन के आक्रमण को भूलने
की कोशिश करता रहा।
इसके बाद बार-बार चीन कभी सिक्किम तो कभी अरुणाचल प्रदेश और
लद्दाख पर अधिकार जमाने की चेष्टा करता आया है। ऐसे में चीन से
मित्रता का दंभ भरने वाले हमारे विदेश नीति-निर्धारकों को आखिर चीन
की किस बात ने रिझा रखा है, यह समझ से परे है।
चीन अपनी राह मे सबसे बड़ा रोड़ा भारत को मानता है क्योंकि केवल भारत
ही श्रमशील जनसंख्या, प्राकृतिक संसाधन, आईटी ज्ञान और तकनीकी मे
चीन का मुक़ाबला कर सकता है और यही वजह है कि चीन बहुत पहले से
ही सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर भारत की घेराबंदी शुरू कर चुका है।
भारत की आंतरिक सुरक्षा मे सेंध लगाने से भी चीन कभी नहीं चूकता।
भारत के अलगाववादी संगठनों को चीन का पूर्ण अप्रत्यक्ष सहयोग प्राप्त
है। कुछ समय पहले चाइना इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्ट्रटीजिक स्टडीज
की वेबसाइट पर भारत विरोधी लेख जारी हुआ।चीनी विदेश मंत्रालय
को सलाह देने वाली इस संस्था के लेख में कहा गया कि चीन
को पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे मित्र देशों की मदद से भारत
को 30 टुकड़ों में बांट देना चाहिए।
भारतीय सीमा के भीतर लद्दाख तथा पूर्वोत्तर में चीनी सैनिक की घुसपैठ
जारी है. भारत विरोधी मंशा के चलते ही चीन ने पीओके क्षेत्र में 80 अरब
डॉलर का निवेश किया है। चीन ने सीधे इस्लामाबाद पहुंचने के लिए
काराकोरम होकर सड़क मार्ग भी तैयार कर लिया है। इस निर्माण के पश्चात
चीनी दस्तावेजों में अब इस भारतीय भूमि को उत्तरी पाकिस्तान
दर्शाया जाने लगा है। भारतीय राज्य अरुणाचल प्रदेश को चीन
अपना हिस्सा मानता है। गत वर्ष 30 सदस्यीय भारतीय सैन्य
प्रतिनिधि दल के एक सदस्य ग्रुप कैप्टन पांगिंग
को वीजा नहीं दिया गया क्योंकि चीन इस प्रदेश
को अपना हिस्सा मानता है। इसी तरह भारत द्वारा अग्नि-5 नामक इंटर
कॉन्टिनेन्टल मिसाइल के सफल परीक्षण पर भी चीन की खीज
भरी कुत्सित प्रतिक्रिया देखने को मिली थी जब उसने भारत
की सफलता को ‘झूठ’ करार दिया था।
भारत विरोधी गतिविधियों की धुरी बन चुका है चीन; जिसके आसपास भारत
के पड़ोसी देश इकट्ठे होकर मोर्चाबंद हो गए हैं। पाकिस्तान, मालदीव,
श्रीलंका, बांग्लादेश तथा नेपाल मे आज भारत के पक्ष में माहौल नहीं है।
इन सभी पड़ोसी मुल्कों मे चीन की तूती बोल रही है। सुदूर दक्षिण देशों में
चीन की बढ़ती दखल ने भारत को चिंता मे डाल दिया है। चीन
का पाकिस्तान प्रेम और उसके मिसाइल तथा परमाणु विकास कार्यक्रम में
गुपचुप चीनी मदद की बात जगजाहिर है। वह खुलेआम भारत के शत्रुदेश
पाकिस्तान को समर्थन व सामरिक सहयोग देता है।
भारत की ढुलमुल विदेश नीति के चलते श्रीलंका को भी चीन ने अपने पक्ष
मे कर लिया है। भारत और श्रीलंका के मध्य केवल 35 km की दूरी है
जबकि चीन वहाँ से हजारों किलो मीटर की दूरी पर बैठा है। फिर भी चीन ने
श्रीलंका मे अपने सामरिक बन्दरगाह स्थापित करने मे सफलता हासिल कर
हिन्द महासागर मे अपनी शक्ति मे इजाफा कर लिया है। मालदीव मे
भी लोकतान्त्रिक सरकार के तख्तापलट पर भारत की चुप्पी ने चीन
को मालदीव मे अपनी पैठ बढ़ाने का मौका दे दिया है।
कभी भारत के विश्वस्त पड़ोसी रहे नेपाल को चीन ने शक्ति की धौंस और
कम्युनिज़्म की पुचकार से अपने पक्ष मे झुका लिया है। अवैध माल
तथा नकली नोटों की तस्करी के लिए नेपाल चीन को अपनी जमीन
मुहैया करा रहा है तथा दोनों देश मिलकर भारत की मौद्रिक
अर्थव्यवस्था को तोड़ने में जुटे हैं। वामपंथी दुराग्रहों से ग्रसित भारतीय
विदेश नीति चीन के विरुद्ध प्रभावशाली विरोध दर्ज कराने से भी परहेज
बरत रही है।
इन्हे समझ जाना चाहिए की चीन कम्युनिस्ट होने के बावजूद
विस्तारवादी नीतियों पर चलते हुए अन्य छोटे कम्युनिस्ट देशों को निगलने
की ताक मे है और चीन की नज़र मे लोकतान्त्रिक भारत तो धीरे धीरे
तोड़कर खाया जाने वाला मज़ेदार बड़ा निवाला है।
चीन द्वारा भारत की ऐसी भीषण घेराबंदी के बावजूद यदि अब भी हम
नहीं चेते तो आखिर कब चेतेंगे?
चीन के पास 22,85,000 सैनिकों से युक्त फौज भारत की 13,25,000
की सैनिक संख्या से लगभग दोगुनी है। उसके आयुध भंडार भारत के आयुध
भंडार के मुक़ाबले तीन गुना अधिक वृहत है। चीन की परमाणु
रक्षा प्रणाली भारत से मीलों आगे है। चीन ने 1964 से ही परमाणु
हथियारों का एकत्रीकरण आरंभ कर दिया था और आज उसके शस्त्रागार मे
240 परमाणु हथियार हैं जिनमे से 180 से अधिक हथियार सक्रिय अर्थात
किसी भी समय हमला करने मे सक्षम हैं।
इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि भारत चीन के प्रति आक्रामक
कूटनीति का सहारा ले। भारत को चीन के मुकाबले अपनी सामरिक
क्षमता बढ़ाते हुए सभ्यतामूलक हिंदू, बौद्ध पथ द्वारा अपने
पड़ोसी देशों और तिब्बत, मंगोलिया, ताइवान, जापान एवं अन्य बौद्ध बहुल
राष्ट्रों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहिए किन्तु दुर्भाग्य से भारत की सेक्युलर
राजसत्ता मूल भारतीय धर्मों और प्रतीकचिह्नों के प्रति उपेक्षा का भाव
रखना अपना कर्तव्य समझती है जबकि साम्यवादी चीन निर्द्र्वद् रूप से
वर्तमान वैश्विक कूटनीतिक परिदृश्य में बुद्ध को अपनी छवि सुधारने और
प्रभाव बढ़ाने का साधन बनाए हुए है। इसका असर भारत के महत्वपूर्ण
सीमक्षेत्र लद्दाख तथा पूर्वोत्तर राज्यों भी दिखाई देने लगा है. वहां के
बौद्ध घरों को चीन ने चाइना निर्मित भगवान बुद्ध के पोस्टर, चित्र,
ल्हासा के चमचमाते विशाल चित्र, चीन के सामान्य जनजीवन
की खुशहाली दिखाने वाले चित्रों, पोस्टकार्ड और सीडी आदि से भर
दिया है। चीन का यह छद्म सांस्कृतिक आक्रमण भारत की धर्मभीरु
जनता को भरमाने लिए काफी है और चीन के मानसिक युद्ध
की सफलता का द्योतक है. जिस क्षेत्र पर कब्जा करना हो, पहले
वहां की जनता का मन जीता जाता है. कूटनीति के इस प्राचीन सूत्र
को चीन अच्छी तरह इस्तेमाल कर रहा है।
अब समय आ गया है कि भारत अपने
सीमावर्ती क्षेत्रों की जनता को राष्ट्र की मूलधारा से जोड़ने के लिए
तत्काल प्रभावशाली एवं वास्तविक कार्ययोजना लागू करे। समय आ गया है
कि भारत वामपंथियों द्वारा आरोपित हीनता के भ्रमजाल को तोड़कर
अपनी जड़ों की ओर लौटे तथा सम्पूर्ण विश्व में अपने प्राचीन संस्कृतिक
विदेश सम्बन्धों को पुनर्स्थापित करे। समय आ गया है कि भारत मिमियाने
की नेहरूवादी नीति छोडकर अपने महानतम राजनीतिक पूर्वज चाणक्य
का अनुसरण प्रारम्भ करे। अपने शत्रुओं को पहचाने उनके खिलाफ
मजबूती के साथ खड़ा होकर विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप मे
हुंकार भरे। कायरता को अहिंसा का ताज बहुत पहना चुके हम। अब
वीरता को पुनः अंगीकार किया जाए।