बुधवार, 25 दिसंबर 2013

वीर्यरक्षा के बिना ब्रह्मज्ञान सम्भव नही

वीर्यरक्षा के बिना ब्रह्मज्ञान सम्भव नहीं

वीर्य ईश्वरीय उर्जा का अनंत स्रोत है| वीर्यवान सांड को बांधा भी नहीं जा सकता| दास (बैल) बनानेकेलिए किसान सांड़को वीर्यहीन करदेताहै| वीर्यहीन होते ही वह बैल बन कर किसान के लिए अन्न पैदा करता है, जिसे किसान स्वयं खा जाता है और बैल को भूसा खिलाता है| दास बनानेहेतु पैगम्बरोंने बलात्कार, खतना व कुमारी मरियम को मजहबसे जोड़दिया| वीर्यहीन व्यक्ति अपनी इन्द्रियों और शक्तिवान का दास ही बन सकता है, स्वतन्त्र नहीं रह सकता|

हम वीर्यहीन बनने के लिए तैयार नहीं हैं| विद्या, स्वतंत्रता और विवेक के लिए ईसाइयत और इस्लाम मजहबों में कोई स्थान नहीं है| कुरान २:३५ व बाइबल, उत्पत्ति २:१७| हम गायत्री मंत्र द्वारा ईश्वर से बुद्धि को सन्मार्ग पर ले जाने की प्रार्थना करते हैं| हमारी गीता मानव मात्र को उपासना की आजादी देती है| (गीता ७:२१), हम जेहोवा और अल्लाह के उपासना की दासता स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं| अजान व नमाज को पूजा मानने के लिए तैयार नहीं हैं| मैं आतताई अल्लाह व जेहोवा को भगवान मानने के लिए तैयार नहीं हूँ और न अजान व नमाज को पूजा मानता हूँ|

हम बेटी (बाइबल, १, कोरिन्थिंस ७:३६) से विवाह कराने वाले ईसा व पुत्रवधू (कुरान, ३३:३७-३८) से निकाह कराने वाले अल्लाह और धरती के किसी नारी के बलात्कार के बदले स्वर्ग देने वाले (बाइबल, याशयाह १३:१६) व (कुरान २३:६) जेहोवा और अल्लाह को ईश्वर मामने के लिए तैयार नहीं हैं|

जड़ (निर्जीव) और चेतन परमाणु उर्जा

जिसे आज के वैज्ञानिक परमाणु कहते हैं| उसे हमारे पूर्वज ब्रह्म कहते थे| आज की परमाणु ऊर्जा विज्ञान निर्जीव परमाणु ऊर्जा विज्ञान है| जब कि हमारे पूर्वजों का विज्ञान जैविक परमाणुओं के भेदन पर आधारित था| हमारा ज्ञान और विज्ञान आज के जड़ परमाणु उर्जा से अत्यधिक विकसित था| आज की परमाणु उर्जा जड़ परमाणुओं के भेदन पर आश्रित है| लेकिन महाभारत काल में अश्वश्थामा के ब्रह्मास्त्र के संधान और लक्ष्य भेदन के प्रकरण से स्पष्ट होता है कि ब्रह्मास्त्र स्वचालित नहीं थे| एक बार छोड़ देने के बाद भी उनकी दिशा और लक्ष्य भेदन को नियंत्रित किया जा सकता था| इतना ही नहीं लक्ष्य पर वार कर ब्रह्मास्त्र छोड़ने वाले के पास वापस भी आ जाते थे| उनके मलबों को ठिकाने लगाने की समस्या नहीं थी| विकिरण से होने वाली हानि की समस्या नहीं थी|

भिखारियों और चोरों का जनक मैकाले!

जो उपलब्धि इस्लाम ई० स० ७१२ से ई० स० १८३५ तक अर्जित न कर सका, उससे अधिक ईसाइयत ने मात्र ई० स० १८३५ से ई० स० १९०५ के बीच अर्जित कर लिया| सोनिया वैदिक सनातन संस्कृति को मिटाने की दौड़ में सबसे आगे है| मात्र दसाध वर्षों की अवधि में सोनिया ने वैदिक सनातन संस्कृति की जड़ें ही नष्ट कर दी हैं| कुमारी माताओं को सम्मानित किया जा चुका है| लव जेहाद, बेटी व पुत्रवधू से विवाह, सहजीवन व समलैंगिक मैथुन, सगोत्रीय विवाह को कानूनी मान्यता मिल गई है| बारमें दारूपीने वाली बालाओं कासम्मान हो रहा है! विवाह सम्बन्ध अब बेमानी हो चुके हैं| स्कूलों में यौन शिक्षा लागू हो गई है| अब सोनिया टाटा, बिड़ला, अम्बानी आदि को लूटने के लिए एफडीआई लागू कर चुकी है|

विद्या मात्र ब्रह्मविद्या है और ज्ञान मात्र ब्रह्मज्ञान| वीर्यरक्षा के बिना ब्रह्मज्ञान सम्भव नहीं| वीर्य के रक्षा की शिक्षा गुरुकुलों में निःशुल्क दी जाती थी, जिसे मैकाले ने मिटा दिया| भारतीय संविधान की शपथ लेने वाले वैदिक सनातन धर्म और मानव जाति की रक्षा नहीं कर सकते|

मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

बड़ा दिन यानी भीष्म पितामह का निर्वाण पर्व

बड़ा दिन यानी भीष्म पितामह का निर्वाण पर्व

वैज्ञानिक शोधों से अब यह प्रमाणित हो चुका है कि महाभारत का युद्घ हुआ था , और महाभारत का युद्घ संसार का प्राचीन काल का विश्व युद्घ था। कृष्ण द्वैपायन वेदव्यास कृत  महाभारत ग्रन्थ के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि महाभारत का युद्घ 18 दिन चला था और 18 अक्षौहिणी ही सेना इसमें काम आयी थी। एक अक्षौहिणी सेना में एक लाख नौ हजार तीन सौ पचास सैनिक 65610 घुड़सवार 21870 रथ और 11870 हाथी होते थे। इस प्रकार 47,23,920 पैदल सैनिकों को इस युद्घ में अपना प्राणोत्सर्ग करना पड़ा था। इतने विनाशकारी युद्घ की आधारशिला राजधर्म से विमुख हुई राजनीति के छल प्रपंचों और छद्म नीतियों के हाथों रखी गयी थी, उस पर प्रकाश डालना यहां उचित नही है। श्रीकृष्ण जी महाराज ने इस विनाशकारी युद्घ को टालने के लिए विराट नगरी से पाण्डवों के दूत के रूप में चलकर हस्तिनापुर की सभा में आकर पांडवों के लिए दुर्योधन से पांच गांव मांगे थे। जिनमें इंद्रप्रस्थ (दिल्ली) वृकप्रस्थ (बागपत) जयंत (जानसठ) वारणाव्रत (बरनावा) और पांचवां गांव दुर्योधन की इच्छा से मांगा गया था। लेकिन जब दुर्योधन ने कह दिया कि बिना युद्घ के तो सुई की नोंक के बराबर भी भूमि नही दी जाएगी तो केशव युद्घ को अवश्यंभावी मानकर वापिस चल दिये थे। उस समय हस्तिनापुर से बाहर बहुत दूर तक छोडऩे के लिए कर्ण कृष्ण जी के साथ आया था। उस एकांत में कृष्ण ने कर्ण को बता दिया था कि वह कुंती का ज्येष्ठ पुत्र है, इसलिए उसे पाण्डवों का साथ युद्घ में देना चाहिए। लेकिन नीतिमर्मज्ञ कर्ण ने तब नीतिकार कृष्ण को जो कुछ कहा था, वह बड़ा ही मार्मिक है और उस दानवीर के प्रति श्रद्घा भाव पैदा करने वाला है। उसने कहा था-मधुसूदन मेरे और आपके बीच में जो ये गुप्त मंत्रणा हुई है, इसे आप मेरे और अपने बीच तक ही रखें क्योंकि-
यदि जानाति मां राजा धर्मात्मा संयतेन्द्रिय:।
कुन्त्या: प्रथमजं पुत्रं स राज्यं ग्रहीष्यति।। (उद्योगपर्व 24)
जितेन्द्रिय धर्मात्मा राजा युधिष्ठर यदि यह जान लेंगे कि मैं कुंती का बड़ा पुत्र हूं तो वे राज्य ग्रहण नही करेंगे। कर्ण ने आगे कहा था कि उस अवस्था में मैं उस समृद्घिशाली विशाल राज्य को पाकर भी दुर्योधन को ही सौंप दूंगा। मेरी भी यही कामना है कि इस भूमंडल के शासक युधिष्ठर ही बनें।
तब युद्घ के प्रारंभ के लिए श्रीकृष्ण जी ने यहीं पर घोषणा कर दी-
कर्ण इतो गत्वा द्रोणं शांतनवं कृपम।
ब्रूया सौम्योअयं वत्र्तते मास: सुप्रापयवसेन्धन:।। (उद्योग पर्व 31)
अच्छा कर्ण! तुम यहां से जाकर आचार्य द्रोण, शांतनुनंदन भीष्म तथा कृपाचार्य से कहना कि यह सौम्य (मार्गशीर्ष=अगहन) मास चल रहा है। इसमें पशुओं के लिए घास तथा जलाने के लिए लकड़ी आदि सुगमता से मिल सकती है।
इस श्लोक से आगे तीसरे श्लोक में कृष्ण जी ने कहा था कि आज से सातवें दिन के पश्चात अमावस्या होगी। उसके देवता इंद्र कहे गये हैं। उसी में युद्घ आरंभ किया जाये। आज के अंग्रेजी मासों के दृष्टिïकोण से समझने के लिए 12 अक्टूबर को कृष्ण जी ने युद्घ की यह तिथि घोषित की थी। आगे हम इसे स्पष्टï करेंगे। अब जब युद्घ आरंभ हुआ तो यह सर्वमान्य सत्य है कि भीष्म पितामह युद्घ के सेनापति दस दिन रहे थे। युद्घ 19 अक्टूबर से आरंभ हुआ और 28 अक्टूबर को भीष्म पितामह मृत्यु शैय्या पर चले गये। जब युद्घ समाप्त हुआ तो पांचों पांडवों और कृष्णजी ने भीष्म पितामह से उनकी मृत्यु शैय्या के पास जाकर उपदेश प्राप्त किया। युद्घ 19 अक्टूबर से आरंभ होकर 5 नवंबर तक (18 दिन) चला।
पांच नवंबर को ही भीष्म पितामह ने युधिष्ठर को आज्ञा दी थी कि अब तुम राजभवनों में जाकर अपना राजकाज संभालो और पचास दिन बाद जब सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होने लगे तब मेरे पास आना। मैं उसी काल में प्राणांत करूंगा। 5 नवंबर से पचास दिन 25 दिसंबर को होते हैं। अब थोड़ा और महाभारत को पलटें। अनुशासन पर्व के 32वें अध्याय के पांचवें श्लोक को देखें:-
उषित्वा शर्वरी श्रीमान पंचाशन्न गरोत्त में।
समयं कौरवा ग्रयस्य संस्कार पुरूषर्षभ:।।
अर्थात पचास रात्रि बीतने तक उस उत्तम नगर में निवास करके श्रीमान पुरूष श्रेष्ठ कुरूकुल शिरोमणि युधिष्ठर को भीष्म के बताये समय का ध्यान हो आया। यह घटना 25 दिसंबर प्रात: की है। क्योंकि 23 दिसंबर को दिन सबसे छोटा और रात सबसे बड़ी होती है। 24 दिसंबर को दिन बढ़ता है तो परंतु ज्ञात नही होता है। सूर्य उत्तरायण में विधिवत 25 दिसंबर को ही प्रवेश करता है। उत्तरायण और दक्षिणायन की सूर्य की ये दोनों गतियां भारतीय ज्योषि शास्त्र की अदभुत खोज हैं।
युधिष्ठर को अपने बंधु बान्धवों सहित सही समय पर अपनी मृत्यु शैय्या के निकट पाकर भीष्म पितामह को बड़ी प्रसन्नता हुई। तब जो उन्होंने कहा वह भी ध्यान देने योग्य है-
अष्ट पंचाशतं राज्य: शयानस्याद्य मे गता:।
शरेषु निशिताग्रेषु यथावर्षशतं तथा।। (अनु 32/24)
अर्थात इन तीखे अग्रभागवाले बाणों की शैय्या पर शयन करते हुए आज मुझे 58 दिन हो गये हैं, परंतु ये दिन मेरे लिए सौ वर्षों के समान बीते हैं।
उन्होंने आगे कहा–
माघोअयं समनुप्राप्तो मास: सौम्यो युधिष्ठर।
त्रिभागेशेषं पक्षोअयं शुक्लो भवितुर्महति।।
अर्थात हे युधिष्ठर! इस समय चंद्रमास के अनुसार माघ का महीना प्राप्त हुआ है। इसका यह शुक्ल पक्ष है। जिसका एक भाग बीत चुका है और तीन भाग शेष हैं। इसका अभिप्राय है कि उस दिन शुक्ल पक्षकी चतुर्थी थी। इन साक्षियों से स्पष्टï हो जाता है कि भीष्म पितामह का स्वर्गारोहण 25 दिसंबर को सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने पर हुआ। 25 दिसंबर को भीष्म यदि ये कह रहे थे कि आज मुझे इस मृत्यु शैय्या पर पड़े 58 दिन हो गये हैं तो इसका अभिप्राय है कि 28 अक्टूबर को वह मृत्यु शैय्या पर आये थे। और युद्घ 19 अक्टूबर से प्रारंभ हो गया था। अक्टूबर-नवंबर के महीने में ही अक्सर मार्गशीर्ष माह का संयोग बनता है और इस माह में ही वैसी हल्की ठंड और गरमी का मौसम होता है जैसा श्रीकृष्ण जी ने कर्ण को युद्घ की तिथि बताते समय कहा था-
सर्वाधिवनस्फीत: फलवा माक्षिक:।
निष्यं को रसवत्तोयो नात्युष्ण शिविर: सुख:।।
सब प्रकार की औषधियों तथा फल फूलों से वन की समृद्घि बढ़ी हुई है, धान के खेतों में खूब फल लगे हुए हैं मक्खियां बहुत कम हो गयीं हैं। धरती पर कीचड़ का नाम भी नही है। जल स्वच्छ तथा सुस्वादु है। इस सुखद मास में (यदि युद्घ होता है तो) न तो बहुत गरमी है और न अत्यधिक सर्दी ही है। अत: इसी महीने में युद्घ होना उचित रहेगा। हमारे पास मार्गशीर्ष की अमावस्या सहित 17 दिन, पौष माह के 30 दिन, माघ के कृष्ण पक्ष के 10 दिन + 4 दिन शुक्ल पक्ष कुल 68 दिन बनते हैं। 58 दिन भीष्म मृत्यु शैय्या पर रहे और दस दिन वे युद्घ के सेनापति रहे इस प्रकार युद्घ से 68 वें दिन वे स्वर्गारोहण कर रहे थे। इस सबका संयोग 19 अक्टूबर से 25 दिसंबर तक ही पूर्ण होता है।
कुछ लोगों की मान्यता है कि उन्होंने अपना शरीरांत मकर संक्रांति पर किया था। लेकिन मकर संक्रांति पर यह संयोग बनता नही। जब महाभारत एक एक तिथि की घोषणा कर करके आगे बढ़ रही हो तो भीष्म जैसा विद्वान व्यक्ति अपने शरीरांत की घोषणा सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश करने को कहकर नही करता, अपितु वह सूर्य के मकर राशि में प्रवेश की बात कहता और भी कुछ नही तो जिस दिन उनका शरीरांत हो रहा था, उस दिन तो वह अवश्य ही कहते कि आज मकर संक्रांति है और इस दिन संसार से मेरा जाना उचित है। लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नही कहा।
भीष्म पितामह अपने काल के बड़े आदमी यानि सर्वप्रमुख महापुरूष थे। उन जैसा योद्घा उस समय नही था। कृष्ण भी उनका सम्मान करते थे। वह दोनों पक्षों के सम्माननीय थे। इसलिए उन जैसे महायोद्घा के जाने के पश्चात उन्हें विशेष सम्मान दिया जाना अपेक्षित था। महाराज युधिष्ठर भीष्म से असीम अनुराग रखते थे। उनकी मृत्यु पर उन्हें असीम वेदना हुई थी और वह राजपाठ तक को छोडऩे को उद्यत हो गये थे। अत: उनसे यह अपेक्षा नही की जा सकती कि उन्होंने भीष्म को मरणोपरांत कोई विशेष सम्मान न दिया हो, उन्होंने भीष्म को आज के गांधीजी की तरह राष्ट्रपिता जैसा सम्मान दिया। सारे राष्ट्र ने उन्हें बड़ा माना और इसी रूप में पूजा। इसीलिए कालांतर में धीरे धीरे 25 दिसंबर का दिन भी बड़ा दिन कहा जाने लगा। यह घटना (विद्वानों की मान्यतानुसार) अब से 5119 वर्ष पुरानी है। भीष्म पितामह का निर्वाण मकर संक्रांति दिवस को हुआ था , परन्तु सूर्य वर्तमान में मध्य जनवरी अर्थात चौदह - पंद्रह जनवरी को मकर संक्रांति के अवसर पर उत्तरायण होते हैं ।

सोमवार, 9 दिसंबर 2013

महिला सशक्तीकरण

महिला सशक्तीकरण

वर्तमान में महिला सशक्तिकरण का अर्थ कुछ इस प्रकार लगाया जाता है कि जैसे महिलाओं को किसी वर्ग विशेषकर पुरूष वर्ग का सामना करने के लिए सुदृढ किया जा रहा है। भारतीय समाज में प्राचीनकाल से ही नारी को पुरूष के समान अधिकार प्रदान किये गये हैं। उसे अपने जीवन की गरिमा को सुरक्षित रखने और सम्मानित जीवन जीने का पूर्ण अधिकार प्रदान किया गया। यहां तक कि शिक्षा और ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में भी महिलाओं को अपनी प्रतिभा को निखारने और मुखरित करने की पूर्ण स्वतंत्रता प्रदान की गयी। महाभारत काल के पश्चात नारी की इस स्थिति में गिरावट आयी। उससे शिक्षा का मौलिक अधिकार छीन लिया गया। धीरे धीरे शूद्र गंवार, पशु और नारी को ताडऩे के समान स्तर पर रखने की स्थिति तक हम आ गये।जबकि शूद्र, गंवार पशु और नारी ये प्रताडऩा के नही अपितु ये तारन के अधिकारी है। इनका कल्याण होना चाहिए। जिसके लिए पुरूष समाज को विशेष रक्षोपाय करने चाहिए।
भारत की नारी सदा अपने पति में राम के दर्शन करती रही है। हमारे यह सांस्कृतिक मूल्य इस पतन की अवस्था में भी सुरक्षित रहे। मुस्लिम काल में हिंदू समाज के कई संप्रदायों ने महिलाओं को पर्दे में रखना आरंभ कर दिया। यह पर्दा प्रथा मुस्लिम समाज के आतंक से बचने के लिए जारी की गयी। जो आज तक कई स्थानों पर एक रूढि़ बनकर हिंदू समाज के गले की फांसी बनी हुई है। अंग्रेजों के काल में भी यह परंपरा यथावत बनी रही, अन्यथा प्राचीन भारतीय समाज में पर्दा प्रथा नही थी। आज समय करवट ले रहा है। दमन, दलन और उत्पीडऩ से मुक्त होकर नारी बाहर आ रही है। यह प्रसन्नता की बात है, किंतु फिर भी कुछ प्रश्न खड़े हैं। नारी के सम्मान के, नारी की मर्यादा के, नारी की गरिमा के और नारी सुलभ कुछ गुणों को बचाये रखने को लेकर। नारी की पूजा से देवता प्रसन्न होते हैं हमारे यहां ऐसा माना जाता है। जहां नारी का सम्मान होता है वहां देवताओं का वास होता है। इसका अर्थ नारी की आरती उतारना नही है, अपितु इसका अर्थ है नारी सुलभ गुणों-यथा उसकी ममता, उसकी करूणा, उसकी दया, उसकी कोमलता का सम्मान करना। उसके इन गुणों को अपने जीवन में एक दैवीय देन के रूप में स्वीकार करना। जो लोग नारी को विषय भोग की वस्तु मानते हैं वो भूल जाते हैं कि नारी सबसे पहले मां है, यदि वह मां के रूप में हमें ना मिलती और हम पर अपने उपरोक्त गुणों की वर्षा ना करती तो क्या होता? हम ना होते और ना ही यह संसार होता। तब केवल शून्य होता। उस शून्य को भरने के लिए ईश्वर ने नारी को हमारे लिये सर्वप्रथम मां बनाया। मां अर्थात समझो कि उसने अपने ही रूप में उसे हमारे लिये बनाया। इसलिए मां को सर्वप्रथम पूजनीय देवी माना गया। मातृदेवो भव: का यही अर्थ है। आज नारी के इस सहज सुलभ गुण का सम्मान नही हो रहा है। नारी मां के रूप में उत्पीडि़त है। किंतु यदि थोड़ा सूक्ष्मता से देखा जाए तो आज वह मां बनना भी नही चाह रही है। पुरूष के लिए यह भोग्या बनकर रहना चाह रही है।इसीलिए परिवार जैसी पवित्र संस्था का आज पतन हो रहा है। उसे अपना यौवन, अपनी सुंदरता और अपनी विलासिता के लिए अपने मातृत्व से ऊपर नजर आ रही है। पुरूष के लिए वह भोग्या बनकर रहना चाहती है। खाओ, पिओ एवं मौज उड़ाओ की जिंदगी में मातृत्व को समाप्त कर वह अपने आदर्शों से खेल रही है। आज महिला पुरूष के झगड़े अप्रत्याशित रूप से बढ़ रहे हैं। पुरूष ही नारी की हत्या नही कर रहा है अपितु नारी भी पति की हत्या या तो कर रही है या करवा रही है। निरे भौतिकवादी दृष्टिकोण का परिणाम है यह अवस्था।
मां नारी के रूप में जब मां बनती है तो वह हमारे जीवन का आध्यात्मिक पक्ष बन जाती है जबकि पिता भौतिक पक्ष बनता है। जीवन इन दोनों से ही चलता है। हमारे शरीर में आत्मा मां का आध्यात्मिक स्वरूप है और यह शरीर पिता का साक्षात भौतिक स्वरूप। अध्यात्म से शून्य भौतिकवाद विनाश का कारण होता है और भौतिकवाद से शून्य अध्यात्म भी नीरसता को जन्म देता है। नारी को चाहिए कि वह समानता का स्तर पाने के लिए संघर्ष अवश्य करें किंतु अपनी स्वाभाविक लज्जा का ध्यान रखते हुए। निर्लज्ज और निर्वस्त्र होकर वह धन कमा सकती है किंतु सम्मान को प्राप्त नही कर सकती है। भौतिकवादी चकाचौंध में निर्वस्त्र घूमती नारी, अंग प्रदर्शन कर अपने लिए तालियां बटोरने वाली नारी को यह भ्रांति हो सकती है कि उसे सम्मान मिल रहा है,किन्तु स्मरण रहे कि यह तालियां बजना, उसका सम्मान नही अपितु अपमान है क्योंकि जब पुरूष समाज उसके लिए तालियां बजाता है तब वह उसे अपनी भोग्या और मनोरंजन का साधन समझकर ही ऐसा करता है। जिसे सम्मान कहना स्वयं सम्मान का भी अपमान करना है।
हमें दूरस्थ गांवों में रहने वाली महिलाओं के जीवन स्तर पर भी ध्यान देना होगा। महिला आयोग देश में सक्रिय है। किंतु यह आयोग कुछ शहरी महिलाओं के लिए है। यह आयोग तब तक निरर्थक है जब तक यह स्वयं ग्रामीण महिलाओं के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने के लिए ग्रामीण आंचल में जाकर कार्य करने में अक्षम है। नारी सशक्तिकरण का अर्थ है नारी का शिक्षाकरण। शिक्षा से आज भी ग्रामीण अंचल में नारी 90 प्रतिशत तक अछूती है। उसे शिक्षित करना देश को विकास के रास्ते पर डालना है। इससे नारी वर्तमान के साथ जुड़ेगी। नारी सशक्तिकरण का यही अंतिम ध्येय है।
नारी के बिना पुरूष की परिकल्पना भी नही की जा सकती। ईश्वर ने नारी को सहज और सरल बनाया है, कोमल बनाया है। उसे क्रूर नही बनाया। निर्माण के लिए सहज, सरल, और कोमल स्वभाव आवश्यक है। विध्वंश के लिए क्रूरता आवश्यक है। रानी लक्ष्मीबाई हों या अन्य कोई वीरांगना, अपनी सहनशक्ति की सीमाओं को टूटते देखकर ही और किन्ही अन्य कारणों से स्वयं को अरक्षित अनुभव करके ही क्रोध की ज्वाला पर चढ़ी। यहां तक कि इंदिरा गांधी भी नारी के सहज स्वभाव से परे नही थी। सिंडिकेट से भयभीत इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल की घोषणा कर दी। अन्यथा इंदिरा केवल एक नारी थी। वही नारी जो अपनी हार पर (1977 में) अपनी सहेली पुपुल जयकर के कंधे पर सिर रखकर रोने लगी थी। यह उसकी कोमलता थी। मातृत्व शक्ति का गुण था।
नारी को अपने मातृत्व पर ध्यान देना चाहिए। वह पुरूष की प्रतिद्वन्द्वी नही है। अपितु वह पुरूष की सहयोगी और पूरक है। पुरूष को भी इस सत्य को स्वीकार करना चाहिए। गृहस्थ इसी भाव से चलता है। नारी अबला है। अपनी कोमलता के कारण, अपने मातृत्व के कारण उसके भीतर उतना बल नही है जितना पुरूष के भीतर होता है। इसलिए पहले पिता पति और वृद्धावस्था में उसका पुत्र उसका रक्षक है। वह घर की चारदीवारी से बाहर निकले यह अच्छी बात है, उसकी स्वतंत्रता का तकाजा है। किंतु यह स्वतंत्रता उसकी लज्जा की सीमा से बाहर उसे उच्छृंखल बनाती चली जाए तो यह उचित नही है। इसी से वह हठीली और दुराग्रही बनती है। जिससे गृहस्थ में आग लगती है और मामले न्यायालयों तक जाते हैं। समाज की वर्तमान दुर्दशा से निकलने के लिए नारी और पुरूष दोनों को ही अपनी अपनी सीमाओं का रेखांकन करना होगा तभी हम स्वस्थ समाज की संरचना कर पाएंगे।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

झारखण्ड राज्य की स्थापना के 13 महत्वपूर्ण वर्ष और विकास का वास्तविक सच।

झारखण्ड राज्य की स्थापना के 13 महत्वपूर्ण वर्ष और विकास का वास्तविक सच।

    एमपी चुनाव में गठबंधन सरकार की क्या होगी भूमिका ?

झारखण्ड में लोकसभा चुनाव-2014 की तैयारियों में जुटी तमाम छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियों द्वारा पिछले कई महीनों से जहाँ एक ओर संगठन की मजबूती के साथ-साथ जनसंपर्क के माध्यम से क्षेत्रों में अपनी पहुँच व पकड़ बनाने की कोशिशंे लगातार जारी है, वहीं दूसरी ओर झारखण्ड बनने के बाद से अब तक राज्य की बागडोर संभालने वाले नेताओं व उनकी पार्टियों द्वारा अपनी-अपनी उपलब्धियाँ अवाम के बीच परोस कर भावी चुनाव में उनका समर्थन व सहयोग अपेक्षित बनाए रखने के प्रयास भी अंतिम मुकाम की ओर अग्रसर हैं। देखा जाय तो झारखण्ड में दो राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों काँग्रेस व भाजपा सहित प्रमुख क्षेत्रीय पार्टियों यथा झामुमों, झाविमों, राजद, जदयू व आजसू पार्टी, के बीच ही राज्य की पूरी राजनीति घुमती है। 15 नवम्बर 2000 को बिहार से अलग हुए इस राज्य के 13 महत्वपूर्ण वर्ष बीत गए। इन 13 वर्षों की कालावधि में एक नये राज्य को राष्ट्रीय स्तर पर जो ख्याति प्राप्त होनी चाहिऐ थी, झारखण्ड उसे प्राप्त कर पाने में अब तक फिसड्डी ही रहा।

इन तेरह वर्षों की अवधि में इस राज्य ने अब तक  9 मुख्यमंत्रियों को देखा। इस राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री के रुप में बाबूलाल मराण्डी ने कुल 28 महीनों (15 नवम्बर 2000 से 17 मार्च 2003) तक शासन की बागडोर संभाली। अपने 28 महीनों के कार्यकाल में बाबू लाल मराण्डी ने राज्य के विकास के अनगिनत सपने तो देखे जरुर, किन्तु उन्हीं के शासन काल में इस राज्य के नागरिकों ने आदिवासी-मूलवासी, डोमिसाईल, आरक्षण, भीतरी-बाहरी, आदिवासी-गैर आदिवासी का फलसफा भी देखा। ’’वर्ष 1932 के सर्वे में जिनका नाम दर्ज होगा वही इस राज्य के स्थायी निवासी होगें’’, का स्लोगन इस कदर लोगों पर हावी होता गया कि अंततः ऐसा प्रतीत होने लगा मानो यह राज्य आन्तरिक कलह व वर्ग संघर्ष का शिकार होकर अपना अस्तित्व ही खो बेठेगा। दो अलग-अलग वर्गों के बीच आपसी मनमुटाव की खाई बढ़ती चली गयी। कई अलग-अलग स्थानों पर समय-असमय खूनी झड़पें भी हुईं। कई लोग काल के गाल में समा गए।

किसी का भाई मौत के मुँह में समा गया तो किसी के पिता। किसी की पत्नी विधवा हो गई तो किसी माँ की कोख ही उजड़ गई। कहीं बड़ी-बड़ी दूकानें आग की भेंट चढ़ गई तो कहीं अबलाओं की इज्ज्त-आबरु नीलाम हुई। यह दिगर बात है कि इन्हीं मुद्दों पर बाबू लाल मराण्डी की जो सरकार गिरी, दूसरी मर्तबा आज तक वे मुख्यमंत्री बनने से महरुम ही रहे। श्री मराण्डी के बाद तीन अलग-अलग कालावधि ( 02 मार्च 2005 से 12 मार्च 2005 तक, 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009 तक तथा 30 दिसम्बर 2009 से 31 मई 2010 तक ) में इस राज्य की बागडोर वतौर मुख्यमंत्री संभालने वाले आदिवासियों के मसीहा व झारखण्ड के कद्दावर नेता दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने भी इस राज्य को वैसा सम्मान नहीं बख्शा जिसका स्वप्न इस राज्य के नागरिकों ने देखा था। जल-जंगल-जमीन व आदिवासियों के हक-हकुक की लड़ाई में अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने का ढि़ढोरा पिटने वाले शिबू सोरेन का वक्त पुरानी राग अलापने में ही खर्च हो गया। जिन आदिवासियों के उत्थान की बातें तकरीबन 30-35 वर्षों तक की उन्हें राज्य तो प्राप्त हो गया किन्तु चैन की जिन्दगी से वे भी बैचेन ही रहे। बाबू लाल मराण्डी के कार्यकाल में वेलफेयर मिनिस्टर रहे भाजपा के अर्जुन मुण्डा ने भी मुख्यमंत्री के रुप में तीन अलग-अलग कार्यखंडों ( 18 मार्च 2003 से 02 मार्च 2005 तक, 12 मार्च 2005 से 14 सितम्बर 2006 तक तथा 11 सितम्बर 2010 से 18 जनवरी 2013 तक ) में इस राज्य के वाशिंदों को लाॅलीपाॅप ही दिखलाने का काम किया। कहा तो यह जाता है कि अर्जुन मुण्डा ने अपने कार्यकाल में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ जंबो एमओयू कर राज्य के लिये विकास खोला था किन्तु उनपर यह भी आरोप लगते रहे कि विकास की बातें कर अवाम से उन्होनें धोखाधड़ी की और मोटी रकम की वसूली कर उन्होनें अपना जेब मोटा किया।

ऐसी बातें नहंी कि इस राज्य ने विकास के सोपान तय नहीं किये। आधारभूत संरचनाओं से लेकर एक राज्य के चतुर्दिक विकास की जो कल्पनाएँ की जाती है वह भी धरातल पर उतारा गया फिर ऐसी क्या बाध्यता इन 13 वर्षों तक रही कि बिहार से अलग होने के बाद भी इस राज्य की विकास यात्रा धरी की धरी रह गई। यह दिगर बात है कि एशियन डवलपमेंट बैंक के तत्वावधान में गोविन्दपुर से साहेबगंज तक तकरीबन 310 किमी तक सड़क निर्माण का कार्य किया जा रहा है। विकास के लिये सड़क के साथ-साथ बड़े-बड़े कल-कारखानों की स्थापना, बेरोजगार युवाओं के लिये रोजगार की पर्याप्त व्यवस्था, स्कूल, काॅलेजेज, इंजीनियरिंग, मेडिकल काॅलेजों की स्थापना, पलायन व विस्थापन की समस्या से अवाम को राहत प्रदान करना, व्यवसायिक काॅलेजों की स्थापना, शिक्षण संस्थानों से विद्यार्थियों को जोड़ना, अनाज से लेकर फल-फूल, शब्जी, व अन्य सामग्रियों का उत्पादन विकास की प्रक्रिया के महत्वूर्ण अवयव हैं। जब से झारखण्ड अलग राज्य बना इस राज्य के सूबे संतालपरगना के मुख्यालय दुमका में हाईकोर्ट के बैंच की स्थापना के साथ-साथ मेडिकल व इंजीनियरिंग काॅलेजों तथा बड़े-बड़े उद्योग-धंधों की स्थापना की माँगें तमाम सत्तासीन सरकार के समक्ष उठाया जाता रहा किन्तु परिणाम वही ढाक के तीन पात वाली रही। ट्राईवल एडवायजरी कमिटी के माध्यम से आदिवासियों व आदिम जनजाति पहाडि़या समुदाय के लोगों के लिये विशेष पैकेज की बातें तो होती रही किन्तु आदिम जनजाति पहाडि़या समुदाय अभी भी खुद को उपेक्षित ही महसूस कर रहा है। संताल परगना प्रमण्डल को पहाडि़या लैण्ड बनाने की माँग लगातार उनके माध्यम से सरकार तक पहुँचती रही।

इस राज्य के लिये सबसे बड़ा संक्रमण का दौर मधुकोड़ा के मुख्यमंत्रित्व काल में रहा। 14 सितम्बर 2006 से 23 अगस्त 2008 तक एक बड़ी राजनीतिक पार्टी की छत्रछाया में झारखण्ड की बागडोर संभालने वाले मधुकोड़ा ने राज्य की विकास यात्रा ही अवरुद्ध कर डाली। 4 हजार करोड़ के घोटाले में फँसे मधुकोड़ा को अपनी नीतियों की वजह से जेल की यात्रा भी करनी पड़ी जो पूरे भारतवर्ष के लिये शर्मसार कर देने वाली घटना थी। राज्य में कई बड़ी-बड़ी कम्पनियों के साथ एमओयू व बिना किसी विचारण के उनके द्वारा उठाऐ गए विकास के अन्य कदमों ने राज्य को अर्स से फर्श पर लाकर खड़ा कर दिया। किसी भी राज्य के सर्वांगिण विकास में एक स्थायी सरकार की भूमिका काफी अहम होती है। पार्टी चाहे राष्ट्रीय हो अथवा क्षेत्रीय। जबतक 5 वर्षों की अवधि तक कोई पार्टी शासन की बागडोर नहीं संभालेगी राज्य का विकास नहीं दिखेगा, किन्तु झारखण्ड में ऐसी बातें नहीं रही। इस राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार 5 वर्षों तक के लिये स्थायी नहंी रही। परिणाम यह रहा कि जिन्हें भी राज्य की बागडोर संभालने का मौका प्राप्त हुआ राज्य के विकास की बात तो दूर निजी स्वार्थ ही उनपर हावी रहा। नेता अपने पाॅकेट भरने में ही लगे रहे। ऐसी स्थिति में तीन मर्तबा इस राज्य को राष्ट्रपति शासन से भी रुबरु होना पड़ा। 19 जनवरी 2009 से 29 दिसम्बर 2009 तक (कुल 344 दिन), 01 जून 2010 से 11 सितम्बर 2010 तक (102 दिन) तथा 18 जनवरी 2013 से 12 जूलाई 2013 तक (175 दिन) तक इस राज्य की बागडोर राज्यपाल के हाथों में रही। राज्य की अवाम के एक बड़े वर्ग का सोंचना है-विकास की सबसे बड़ी बाधा सीएनटी व एसपीटी एक्ट है। उपरोक्त एक्ट के मुताबिक जमीन का हस्तांतरण गैरकानूनी है।

जबतक जमीन का हस्तांतरण नहीं होगा पूँजीपति इस राज्य में निवेश से डरेगें। बड़ी योजनाएँ लागू नहंीं होगीं। उद्योग-धंधों की स्थापना नहीं होने से रोजगार के अवसर लोगों को प्राप्त नहंी होगें। रोजगार का सृजन नहीं होगा तो आर्थिक स्थिति सुद्ढ़ नहीं होगी। पलायन व विस्थापन की समस्या राज्य में बदस्तूर जारी है। छोटे-छोटे काम के लिये दूसरे राज्यों की ओर लोगों का पलायन आम बात हो गई है। झारखण्ड प्रदेश जदयू विधायक दल के नेता, प्रदेश अध्यक्ष व पूर्व मंत्री गोपाल सिंह पातर उर्फ राजा पीटर ने पिछले दिनों संताल परगना प्रमण्डल के भ्रमण के दौरान उप राजधानी दुमका में कहा था राज्य के विकास में जो बाधक का काम कर रहा हो उसमें संशोधन की आवश्यकता है। उन्होनें यह भी कहा था वर्ष 1932 का खतियान आजादी से वर्षों पूर्व अंग्रेजों ने अपनी शासन व्यवस्था को मद्देनजर समय व परिस्थितिवश बनाया था। आजादी के 65 वर्षों बाद भी उन्हीं अंग्रेजों की व्यवस्थाओं पर अपनी-अपनी जिन्दगी ढोने की मानसिकता बनाऐ लोग बैठे हैं तो फिर राज्य के विकास की कल्पना ही क्यों की जा रही ? उन्होनें कहा परिवर्तन समय की माँग है और समय के अनुसार खुद को ढालने की मंशा भी होनी चाहिए।   अन्य प्रदेशों में जानेवाले लोग जीवन की बैलगाड़ी तो किसी तरह खींच लेते है किन्तु उन्हें वैसी स्वतंत्रता हासिल नहीं होती जिसकी चाह वे रखते हैं। विस्थापन व पुर्नवास पर कोई ठोस नीति अब तक स्पष्ट नहीं की गई है। जहाँ कहीं भी बड़ी-बड़ी कम्पनियों द्वारा अपने हितार्थ जमीन प्राप्त की जाती है उन इलाकों के रैयतों को वे वैसा लाभ प्रदान नहीं करते जो जायज है। राज्य की स्थापना का 13 वाँ वर्ष सूबे की राजनीति के लिये कई मायनों में अहम है। वर्तमान झामुमों-काॅग्रेस-राजद गठबंधन की सरकार के 100 दिन पूरे हो गए। जब 13 वर्षों में इस राज्य का विकास नहीं हो सका तो फिर मात्र 100 दिनों के भीतर गठबंधन की सरकार क्या एचिवमंेट प्राप्त कर लेगी यह तो सर्वविदित है किन्तु वर्तमान युवा मुख्यमंत्री हेमन्त सोरेन का यह कहना कि समय कम और चुनौतियाँ अधिक है, विकास की रफतार जो भी हो, पूरे तन-मन से आगे बढ़ते रहना है सांेच तो ठीक है किन्तु क्या यह वर्ष 2014 के एम0पी0 चुनाव के पूर्व राज्य की अवाम के लिये एक अस्थायी आश्वासन नहीं है ? क्या आने वाला समय झामुमों व काँग्रेस के बीच प्रत्याशी खड़े करने के मुद्दे पर आपसी खींचतान का समय नहंी रहेगा ? क्या भाजपा का नमो फार्मूला इस राज्य के भविष्य में हलचल पैदा नहीं करेगा ?